मुफ्त वाली सियासत, मजाक बनती दिल्ली

दिल्ली के जन्मदिवस पर विशेष

नब्बे साल की हो गई दिल्ली। 13 फरवरी 1931 को तत्कालीन वायसराय लॉर्ड इरविन ने इसका उद्घाटन किया था।   

समाज किस तरफ बढ़ रहा है इसका सबसे बड़ा संकेत सियासत से मिलता है। हम आम जिन्दगी में बेशक राजनीति को नजरअंदाज करते रहे, लेकिन सच्चाई यही है कि राजनेता ही देश या फिर राज्य की दिशा और दशा निर्धारित करते हैं। देश की राजधानी दिल्ली की कहानी को इसी संदर्भ में देखने की कोशिश करें तो साफ दिखने लगता है कि जिस तरह की सियासत दिल्ली में चल पड़ी है, सारी तो नहीं, कुछ बातें ऐसी हैं जिनके बारे में सीधे तौर पर कहा जा सकता है कि दिल्ली की सेहत और छवि दोनों के लिए अच्छी नहीं है। इनमें सबसे खास है मुफ्त वाली सियासत और काम कम, प्रचार ज्यादा वाली प्रथा।

इस चर्चा में जाने से पहले दिल्ली के स्वाभिमानी चरित्र को समझना होगा। कुछ सालों पहले तक, देश की राजधानी होने की वजह से देश भर के लोगों में सामान्य धारणा रहा करती थी कि जो बेहतर है वो दिल्ली जाने का हकदार है। जो ज्यादा मेहनत से ज्यादा हासिल करना चाहता है, वो दिल्ली जा सकता है। जो अच्छा कर रहा है, और अच्छा करना चाहता है, वो दिल्ली जा सकता है। कुल मिलाकर कहा जाए तो जो दमदार है वही दिल्ली का हिस्सेदार है।

दिल्ली की तरफ बढ़ने वालों में एक हिस्सा वैसे लोगों का भी रहा, जो बहुत लाचार रहे, जिन्हें पास के लोगों ने ठुकराया, तो फिर ऐसे लोगों को दिल्ली ने अपनाया। इनमें धर्म के नाम पर विभाजन का दंश झेलने वाले पाकिस्तान से आए हिन्दुओं को भी शामिल किया जा सकता है। बड़ी संख्या ऐसे लोगों की भी है जो देश के ही अन्य हिस्सों में जाति और धर्म आधारित भेदभाव से उकताकर राजधानी की शरण में आए। इन्हें दिल्ली ने खुले दिल से अपनाया, इनका खूब भला किया। कहना गलत न होगा, इन लोगों ने अपनी मेहनत से न सिर्फ दिल्ली को संवारा, इसका मान बढ़ाया, इसे और बेहतर बनाया।

लेकिन पिछले कुछ सालों से दिल्ली को लेकर जो धारणा बन रही है वो निसंदेह डराने वाली है। देश भर से, विशेष कर दिल्ली से सटे सभी राज्यों के पास के इलाकों से जिस तेजी से लोगों का दिल्ली आना हो रहा है, वो डराने वाला है। और उसकी सबसे बड़ी वजह जो सामने दिखती है, वो है यहां तेजी से फैलती मुफ्त वाली सियासत।

जन रसोई योजना-थाली एक रुपए वाली

मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी तो अब काफी पीछे की बात हो गई। अब तो मुफ्त भोजन और मुफ्त मकान पर तेजी से काम होने लगा है। आम आदमी पार्टी की मुफ्त वाली सियासत से परास्त और हताश दिल्ली बीजेपी के नेता अब एक रुपए में खाने की थाली के इंतजाम में जुटे हैं। मुफ्त या कह लीजिए बहुत ही सस्ते घर वाली योजना पर तो दिल्ली के दोनों ही प्रमुख दल तेजी से काम कर रहे हैं।

इस पर बात करने का मतलब ये कतई नहीं निकाला जाए कि किसी गरीब को मिलने वाले लाभ पर आपत्ति व्यक्त की जा रही है। लेकिन जरा इन मुफ्त वाली चीजों पर नजर डालिए और इसमें निहित आकर्षण का अंदाजा लगाइए। बस दिल्ली ही तो जाना है। वहां सब कुछ तो मिल रहा है। रहने को मुफ्त में घर, मुफ्त राशन, मुफ्त पीने का पानी। अच्छे स्तर की मुफ्त शिक्षा और स्वास्थ्य भी दिल्ली में ही संभव है।

अब ये सारी सुविधाएं क्या किसी गरीब को नहीं मिलने चाहिए, अगर बहस को उस दिशा में ले जाया जाएगा तो बात बिगड़ जाएगी। देश भर के जरूरतमंदों को ऐसी सुविधाएं मिलनी चाहिए।

लेकिन बात राजधानी दिल्ली की मर्यादा की हो रही है। ये तो सोचना ही होगा कि दिल्ली अपनी उसी मेहनतकश दिल्ली वालों की ताकत के साथ आगे बढ़े या फिर आलसी, मुफ्तखोर लोगों की गिरफ्त में फंस कर रह जाए?

राजधानी में रहने वालों की छवि देश के उम्दा नागरिकों वाली हो या फिर ‘मुफ्तखोर’ वाली?

और वास्तविक अर्थों में मुफ्तखोरों से कैसे निपटेगी दिल्ली? ये सबसे बड़ा सवाल है। जिस तरह की भीड़ दिल्ली के हर कोने में दिखने लगी है, या फिर जिस स्तर के अपराध दिल्ली में दिखने लगे हैं, इन पर सोच कर देखें तो सबसे बड़ी वजह यही मुफ्तखोरी ही सामने आती है।

दिल्ली में काम है और काम के लिए मेहनत करने वालों के पास सबसे बड़ा अभाव समय का होता है। जब आपके पास समय ही नहीं है, तो वो कौन लोग हैं जो बात बात पर दिल्ली की सड़कों पर चाकू और बंदूकें लहरा रहे हैं?

दिल्ली के हर हिस्से के अपने अपने अपराधी गैंग सामने आने लगे हैं। बस कुछ साल पहले की दिल्ली के इतिहास में ऐसा कुछ भी संभव नहीं था। क्योंकि लोगों की आस्था मेहनत में थी। लेकिन मुफ्त वाली सियासत ने इस सोच पर ही ग्रहण लगा दिया है।

दिल्ली में निरंतर बढ़ती भीड़ का ही नतीजा है दिल्ली की सड़कों के किनारे पनपते गैरकानूनी कब्जे वाले बाजार। ये इस शहर को कोढ़ की तरह निगल रहा है। नई दिल्ली के कुछ बेहद वीवीआईपी इलाकों छोड़ दीजिए तो शायद ही कोई ऐसी सड़क या फुटपाथ बची हो, जहां ठेले पर दूकानें न सजती हों। मतलब सुंदर और सिविलाइज्ड शहर की कल्पना से भी दूर जा रही है दिल्ली।

सबसे बड़ी हैरानी इस बात पर होती है कि इन सब को बल मिल रहा है दिल्ली में जारी सियासत से, जो वोट की खातिर बेपरवाह हो चली है।