इसी देश के थे, ज्यादातर देश के सबसे बड़े, प्रधान पद पर पहला दावा ठोकने वाले सूबे के थे जो कोरोना की दूसरी लहर का सामना नहीं कर सके, जान गंवा दिए, गंगा में बहा दिए गए, नदी किनारे पर बस यूं हीं दफना दिए गए। सही शब्दों में कहा जाए तो सूबे का सरकारी सिस्टम जिन्हें बचा नहीं पाया। तथाकथित हिंदू हितों के सरंक्षण करने वालों की होड़ में सबसे आगे चल रहे लोग, उन अभागे नागरिकों को अंतिम संस्कार का अंतिम सुख भी नहीं दे पाए। कोई पहचान नहीं, गिनती नहीं, कोई आंकड़ा तक नहीं। मतलब फाइलों में भी उनकी मौजूदगी नहीं रह पाएगी, जल्द भुला दिए जाने जाएंगे, दुनिया के सबसे पुराने और सबसे बड़े लोकतंत्र के वो लोग।
कोई राकेट साइंस नहीं है, बड़ा ही सरल है समझना, जो गंगा में बस यूं ही बहा दिए गए, अधिकतर गरीब होंगे, मजबूर होंगे। परिवार सक्षम नहीं होगा, कोई साथ देने वाला नहीं होगा, तभी ऐसा करने पर कोई मजबूर हुआ होगा। बात तो ये भी सामने आ रही है कि कोरोना से हुई मौत के बाद बॉडी परिवार वालों को नहीं दी जा रही थी। सरकारी आदेश के तहत अंतिम संस्कार करवाने के लिए बॉडी सीधे एंबुलेंस वालों को दी जा रही थी। मकसद तो सही था कि संक्रमण ना फैले। लेकिन व्यवस्था का घुन यहां कैसे चूकता, गंगा में बॉडी बहाने का ऑप्शन सही मुनाफा जो दे रहा था।
निराशा तब और बढ़ जाती है, जब जैसे ही कोरोना के दूसरी लहर का ज्वार धीमा होता है, अभी महीना भी पूरा नहीं होता है, व्यवस्था की खामियों की चर्चा अभी मीडिया में मुश्किल से जगह बना ही पा रही होती है कि सूबे में सियासी शोर बढ़ जाता है। बात जोर शोर से होने लगती है, जातिवाद की। एक जाति विशेष को मिलने वाले न्याय की। अन्याय की वो यात्रा जो शुरू हुई थी, बेरहमी से कई पुलिस वालों को गोलियों से भून देने वाले अपराधी विकास दूबे के एनकाउंटर से। बीच में सब भुला दिया गया, वो ऑक्सीजन के लिए राजधानी लखनऊ का कराहना, अस्पतालों के बाहर सांसों की तड़प, वो एंबुलेंस की डरावनी आवाज, कोरोना टेस्ट करवाने की जद्दोजहद..इलाज के लिए भटकना।
सबने मानों राजनीति का अफीम चाट लिया हो, फिजा में सियासत का नशा छा गया। बड़े लोगों की बड़े बड़े लोगों से मुलाकातों का दौर शुरू हो गया। क्या दिल्ली क्या लखनऊ, किलोमीटर का आंकड़ा भुला दिया गया। किस जात को कहां जमाना है, देश में बस यही चल पड़ा। कभी सूबे की मुख्यमंत्री रहीं, देश की सबसे बड़ी महिला राजनेताओं में शुमार नेत्री ने भी निराश किया। लगता तो यही रहा कि सूटकेसों की बोझ से उनकी सियासत दम तोड़ रही है। लेकिन पता तो अब चला कि ठीक इसी दूसरी लहर वाले कोरोना काल में वो दूसरा ठिकाना तलाश रही थीं..दूसरे राज्य में संभावनाएं तलाश रही थीं, उन्हीं जात वाले आंकड़ों की ताकत पर।
काश कि पता चल पाता कि वो जो गंगा में बहा दिए गए, नदी किनारे दफना दिए गए…किस जात-धर्म के थे, किस पार्टी को वोट देते थे..?