AAP की ‘NGO पॉलिटिक्स’ डिकोड!

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गांवों में एक कहावत है – एक पाव दूध की जरूरत थी, गाय क्यों खरीद लिए! 

दिल्ली की राजनीति को इस कहावत के जरिए थोड़ा आसानी से समझा जा सकता है. दिल्ली वालों की जरूरत एक पाव दूध की है. मतलब महज छोटी-छोटी जरूरतें. जिसे कांग्रेस, बीजेपी जैसे स्थापित राजनीतिक दल समझ ही नहीं पाए. कांग्रेस तो कुछ ज्यादा ही उलझी नजर आई. नतीजा ये हुआ है कि दिल्ली वालों ने सत्ता रूपी गाय बिल्कुल नई नवेली आम आदमी पार्टी के हाथों सौंप दी.

साल 2012-13 के उस शुरुआती दौर को याद करें, दिल्ली वाले पानी और बिजली के बिल से परेशान थे. दिल्ली वाले सरकारी स्कूलों और अस्पतालों में अच्छी शिक्षा और बेहतर स्वास्थ्य व्यवस्था ही तो चाह रहे थे. लेकिन तब न तो कांग्रेस इस तरह के मसलों पर कुछ स्पष्ट विचार रख पाई, न बीजेपी कुछ बताने की स्थिति में दिखी. नतीजा ये हुआ कि आम आदमी पार्टी की एनजीओ पॉलिटिक्स के लिए जगह बनती चली गई.

दिल्ली की सत्ता पिछले दस-बारह सालों से आम आदमी पार्टी के पास है. कमान अरविंद केजरीवाल के हाथों में है. खुद अरविंद केजरीवाल काफी पढ़े लिखे हैं. बड़े सरकारी अधिकारी रहे, एक सफल एनजीओ वाले रहे. उनकी टीम को देखकर भी यही लगा कि अच्छे लोग हैं, दिल्ली को अच्छे से चला पाएंगे. कहने का मतलब ये है कि इतने सारे अच्छे लोगों ने, अपनी समृद्ध समझ से, इतने सालों तक काम किया, लेकिन दिल्ली को क्या मिला?

क्या दिल्ली चमक रही है, क्या दिल्ली की सरकारी मशीनरी सही तरीके से चल रही है, क्या सिस्टम भ्रष्टाचार मुक्त हो चुका है, क्या दिल्ली वालों के जीवन में कोई बड़ा बेहतर बदलाव हुआ है?

जवाब न होगा. सियासत को साइड रख कर सोचें तो आप पाएंगे, काम जितना होना चाहिए था, उतना नहीं हुआ है. हां इतना जरूर हुआ है..दिल्ली के कुछ स्कूल अच्छे हो गए हैं. बिजली और पानी के बिल से कुछ लोगों को राहत मिली है. मतलब एक सामान्य आय वाले आम दिल्ली वाले के कुछ पैसे बच गए. सरकारी स्कूलों के हालत थोड़े बेहतर हुए. स्वास्थ्य सेवा में सुधार का प्रयास दिखा. आम आदमी पार्टी की सरकार ने यही किया है, एक बड़े एनजीओ की तरह बेहद आम लोगों की जरूरतों पर फोकस किया, उसे पूरा करने की कोशिश की.

जबकि ये बहुत सामान्य बात है, किसी भी दल की सरकार से ये अपेक्षा की जाती है कि वो आम लोगों के जीवन को सरल बनाए. उनकी छोटी-छोटी जरूरतों को समझे, उन्हें समाधान देने पर काम करे. ये तो हर सरकार का बेसिक काम है कि लोगों को सस्ती बिजली, पीने का पानी, बच्चों की पढ़ाई, बेहतर इलाज की सुविधा उपलब्ध करवाए. लेकिन जब स्थापित सियासी दल इन मसलों को नजर अंदाज करेंगे तो जनता विकल्प तलाशेगी हीं. और यही माहौल एनजीओ शैली की सियासत को सूट करता है.

लेकिन क्या देश की राजधानी दिल्ली की बस इतनी सी जरूरत है?

एनजीओ शैली की सियासत से दिल्ली को नुकसान क्या हो रहा है इसे भी समझा होगा.

मुफ्त बिजली-पानी, अच्छे सरकारी स्कूल-अस्पताल के सियासी शोर ने दिल्ली को एक टापू में बदल दिया है. बहुत तेजी से आस-पास के राज्यों से लोगों का आना शुरू हुआ है. केंद्र सरकार की तरफ से राशन फ्री मिल ही रहे हैं. जिस दिल्ली में लोग बड़े सपने लेकर आते रहे, वहां बहुत थोड़ी जरूरत वालों का जमावड़ा लगता जा रहा है. सरकारी व्यवस्थाओं पर बोझ बढ़ता जा रहा है. हालात विस्फोटक होते जा रहे हैं. हर जगह भीड़-भाड़. रेहड़ी-पटरी वालों की बेतहाशा बढ़ती भीड़ की वजह से अतिक्रमण आम बात हो गई है. चौक-चौराहों पर बैटरी-रिक्शा, ऑटो वालों का आतंक है.

हर इलाके की औसतन आबादी में तेज वृद्धि साफ झलकती है. इसकी वजह से तकरीबन पूरी दिल्ली में सीवर की समस्या सामने आ रही है. सीवर की समस्या का मतलब ज्यादा खर्च. महज जाम सीवर को खोलने के लिए महंगी मशीनों की जरूरत होती है. जानकार बताते हैं कि जलबोर्ड के पास ऐसी मशीन लगी गाड़ियों का अभाव है. अगर सीवर बदलना हो तो समझा जा सकता है कि खर्चा कई गुणा बढ़ जाएगा. हालात साफ-साफ बताते हैं कि दिल्ली सरकार के पास सीवर की व्यवस्था संभालने के लिए पैसे नहीं हैं.

अब बात सड़कों की करते हैं. दिल्ली के कई इलाकों में सड़कों की हालत बहुत बुरी थी. सालों से ऐसा चल रहा था. चुनाव करीब आए तो आनन-फानन में सड़कों को रिपेयर किया गया. काम का स्तर बताता है कि ये व्यवस्था बस चुनाव निकालने के लिहाज से की गई है. इतना ही नहीं, सड़कों पर भारी ट्रैफिक को मैनेज करने के लिए रोड के डिजाइन पर काम करने की जरूरत है जिसके लिए विजन चाहिए, पैसा चाहिए.

आज की तारीख में हर मोहल्ले में मल्टी लेवल पार्किंग की जरूरत है, समझा जा सकता है इसके लिए कितना पैसा चाहिए होगा?  

विकास और व्यवस्था से जुड़े हर काम की रफ्तार काफी धीमी नजर आती है. जैसे मजनूं के टीले के पास सड़क चौड़ीकरण का काम पिछले करीब पांच सालों से चल रहा है. कई जगह लोग बताते हैं कि ठेकेदार काम छोड़कर भाग जाता है. मतलब वहां भी खर्चे का ही मामला है.

यमुना की सफाई, साफ हवा जैसे मसले तो और भी बड़े खर्चे हैं. मगर दिल्ली सरकार है कि मानने को तैयार ही नहीं है कि वो दिल्ली को बेहतर व्यवस्था देने में नाकाम रही है. उनके पास इससे जुड़ा कोई विजन नजर नहीं आता है.

सोचने वाली बात ये है कि अगर अभी ये हाल है तो आगे क्या होगा? आम आदमी पार्टी की एनजीओ पॉलिटिक्स अगर आगे और विस्तार के साथ बढ़ेगी, मतलब मुफ्त वाली योजनाओं के साथ लोगों को कैश पैसा बांटा जाने लगेगा, तो दिल्ली का कितना बुरा हाल होगा! क्या देश की राजधानी का गौरव बना रहेगा?

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