बंगाल में चुनाव ‘हिन्दू-मुसलमान’ पर ही होना चाहिए
पता है इतनी स्पष्टता के साथ किसी भी राजनैतिक दल के लिए ऐसा कहना या करना संभव नहीं। ये भारत के मूल स्वभाव के भी विपरित है। लेकिन बंगाल के इतिहास और मौजूदा समय के वास्तविक हालात को देखते हुए देशहित में ये कहना गलत नहीं होगा कि वहां का चुनाव ‘हिन्दू-मुस्लिम’ वाले एजेंडे पर ही होना चाहिए। सुनने में ये अटपटा सा लगता है। उसकी बड़ी वजह यह है कि जैसे ही मुस्लिम विरोध की बात करते हैं उसे तुरंत देश के मुसलमानों के विरोध से जोड़ कर देखा जाने लगता है। जबकि बंगाल की बड़ी समस्या बन रही है वहां पड़ोसी देशों से हो रही मुस्लिम घुसपैठ। और ये वहां रहने वाले हिन्दुस्तानी मुसलमानों के हित में भी नहीं है। हालांकि ये आजादी के समय से ही होता रहा है। लेकिन ममता सरकार की विशेष कृपा दृष्टि की वजह से इसे बहुत ज्यादा विस्तार मिला है। मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति चरम पर है। हद तो तब होने लगी, जब वहां की प्रसिद्ध दुर्गा पूजा जैसी हिन्दू परंपराओं पर भी इसकी आंच आने लगी। सरस्वती पूजा पर रोक लगा दी जाती है। एक ओर हिन्दुओं पर थोपी जा रही तमाम तरह की बंदिशें और वहीं दूसरी तरफ मुसलमानों को मिल रही मनमानी की छूट, ने वहां के न सिर्फ सामाजिक और राजनीतिक संतुलन को, बल्कि आर्थिक संतुलन को भी बिगाड़ कर रख दिया है। वहां के व्यवसायिक घरानों के लोग बताते हैं कि मुसलमानों की मनमानी कभी भी उनके लिए बड़े संकट के तौर पर सामने आ जाती है। कभी भी, कोई भी रास्ता बंद कर दिया जाता है। किसी मुस्लिम कर्मचारी को किसी भी प्रकार से दंडित करने के बुरे नतीजे देखने को मिल जाते हैं।
प्रदेश में राजनीति करने वालों की मजबूरी कह लीजिए या कुछ भी और, सच्चाई यही है कि बीजेपी तो थोड़ा बहुत इस मुद्दे पर बोल पा रही है, किसी और राजनैतिक दल में इस पर बोलने की हिम्मत तक नहीं। जबकि देशहित में सभी को इस पर विचार करना चाहिए, चर्चा करनी चाहिए। तभी तो इसे बढ़ावा देने वाले नेताओं पर अंकुश लगेगा।
इस क्षेत्र में मुसलमानों की संख्या को आधार बना कर बड़े सियासी प्रयोग अंग्रेजों के समय से ही होते रहे हैं। साल 1935 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट के लागू होने के बाद से ही इसकी शुरूआत होती है। इस एक्ट में खेले गए अंग्रेजों के कम्यूनल दांव का असर साल 1937 के चुनाव में दिखने लगा था। कम्यूनल एवार्ड पर आधारित नई विधानसभा में 250 सदस्यों में से महज 80 हिन्दू थे। यहीं से वहां के समाज में सांस्कृतिक पहचान से जुड़ी हर चीज पर मुसलमानों ने अपना दावा ठोकना शुरू कर दिया था। इसी मानसिकता का क्लाइमेक्स आजादी के दौरान देखने को मिला। साल 1947 के दौरान जबरदस्त कत्लेआम झेला बंगाल ने। मुसलमानों की बड़ी संख्या आधारित प्रभुत्व साबित करने वाले कई तरह के दांव पेंच अपनाए गए तत्कालीन मुस्लिम राजनेताओं के द्वारा। पूरा बंगाल पाकिस्तान में मिलाने की पूरी तैयारी थी। लेकिन यहीं श्यामाप्रसाद मुखर्जी की एंट्री हुई। उन्होंने हिन्दुओं की आवाज बड़ी ही मुखरता से उठाई, जिसका नतीजा है आज का आधा बंगाल, यानी पश्चिम बंगाल।
महात्मा गांधी ने यूं ही नहीं श्यामा प्रसाद मुखर्जी को कह दिया था – ‘समुद्रमंथन के बाद भगवान शिव ने जैसे विषपान कर लिया था, वह तुम ही पूरी कर सकते हो।‘
वे अच्छे से समझ रहे थे हिन्दुओं की इस पीड़ा को। लेकिन कांग्रेस की उस समय अपनी कुछ मजबूरियां थी।
अंग्रेजों का कम्यूनल दांव और कांग्रेस की अकर्मण्यता ने श्यामा प्रसाद को इतना विचलित कर दिया कि वे शिक्षा का क्षेत्र छोड़ राजनीति में कूद पड़े थे। उन्होंने ही हिन्दुओं के राजनीतिक हितों पर तुष्टीकरण की वजह से छाए संकट को समाप्त करने की मंशा से जनसंघ नाम की पार्टी बनाई, जो बाद में भारतीय जनता पार्टी के रूप में सामने आई। वे कई जगह स्पष्ट करते दिखते हैं कि उनका मकसद देश में एक ऐसी पार्टी खड़ी करना है जो भारत की समस्त जनता को समान अधिकार देने की बात करे। मतलब सच्चे अर्थों में सेक्यूलर।
लेकिन पश्चिम बंगाल के मौजूदा हालात इतिहास दोहराते दिखते हैं। मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति अपनी चरम अवस्था पर है। जिसका इस्तेमाल खाद-पानी की तरह करते हुए, वहां का मुस्लिम समाज फिर संख्या समीकरण के उसी घातक प्रयोग की तरफ बढ़ते दिखता है, जो बंगाल आजादी के दौर में झेल चुका है। इसी का एक बड़ा परिणाम है पड़ोसी देशों से आए मुसलमानों की नई-नई बस्तियां, जो बड़े शहरों के आस पास बढ़ती चली जा रही हैं। ये एक बड़े खतरे की तरफ इशारा करती हैं। आजादी के समय जो स्थिति कांग्रेस की थी, उसी उलझन में आज सारी सियासी पार्टियां दिखती हैं। कोई भी खुल कर इस मुद्दे को नहीं उठा पा रहा है। फिलहाल समाधान तो यही लगता है कि समस्त देश इस पर ध्यान देना शुरू करे। देश का हित चाहने वाले सभी लोग अपने-अपने तरीके से वहां से इससे जुड़ी जानकारी इकट्ठी करें। बात करना शुरू करें। तभी वहां बड़ा राजनैतिक बदलाव संभव है। क्योंकि टूटी टांग नहीं, टूटता देश सबसे बड़ा सियासी मुद्दा होना चाहिए।