लोकतंत्र में एक दूसरे का लिहाज करना, इज्ज्त करना बड़ी बात है। विशेषकर सियासत करने वाले किसी भी दल के नेता को इसका ध्यान रखना ही चाहिए कि मर्यादा की लक्ष्मण रेखा का मान बना रहे। क्योंकि यही से ये सियासी संस्कृति देश की आम जनता तक जाती है। आज सत्ता के उस तरफ है और ऐसी भाषा का इस्तेमाल कीजिएगा तो तय मानिए जब आप सत्ता में इस तरफ होंगे तो आपको भी ऐसी भाषा का सामना करना ही पड़ेगा।
सही मसले पर सही सवाल सुनते-सुनते अचानक से बुरा सा लगा। जाहिर है इससे बात हल्की हो जाती है।
आम आदमी पार्टी के एमसीडी प्रभारी दुर्गेश पाठक की प्रेस कॉन्फ्रेंस थी। उन्होंने लैंड फील साइट्स पर कूड़ा प्रबंधन के लिए लगाई गई मशीनों से जुड़ी जानकारी साझा की। एमसीडी की ही एक ऑडिट रिपोर्ट का हवाला देकर उन्होंने बताया कि किस तरह 6 लाख महीने पर कूड़े को मैनेज करने लिए जो मशीने लगाई गई हैं उसकी कीमत 17 लाख है। मतलब जिस पर भाजपा शासित एमसीडी ने पांच सालों में 180 करोड़ रुपए खर्च कर दिए, उस काम को बहुत सस्ते में किया जा सकता था। अगर सारी मशीनों को खरीद लिया जाता तो करीब 8 से साढ़े 8 करोड़ रुपए का खर्चा आता।
इसके बाद दुर्गेश पाठक ने दिल्ली से जुड़े बीजेपी के नेताओं से सवाल पूछे। उन्होंने सांसद गौतम गंभीर, बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष आदेश गुप्ता, नॉर्थ एमसीजी के मेयर जेपी समेत बाकि मेयरों को कटघरे में खड़ा किया। लेकिन मौजूदा सियासी चलन का पालन करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लोकल पॉलिटिक्स में जबरन खींच लाते हुए उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री जब पेपर पढ़ते होंगे, देखते होंगे कि 180 करोड़ रुपए उनके लौंडो ने खा लिया।
बिल्कुल ठीक, जनता का पैसा कैसे खर्च किया जा रहा है, इस पर नजर विपक्ष में बैठे राजनेता की रहनी ही चाहिए। सत्ता पक्ष से सवाल भी पूछे जाने चाहिए। लेकिन दिल्ली बीजेपी के नेताओं के लिए ‘प्रधानमंत्री के लौंडे’ शब्द का इस्तेमाल कहां तक उचित है?
रही बात लैंडफिल साइट की, वाकई ये दिल्ली के माथे पर कलंक की तरह से है। दिल्ली की सत्ता से जुड़ी हर सियासी दल के लिए बड़ी सिरदर्द बन चुकी हैं ये लैंडफिल साइट। इसे शुरू करने का निर्णय ही आज की तारीख में गलत नजर आता है। लेकिन तब की बात कुछ और थी, सीमाओं पर पर्याप्त खाली जगह थी। लेकिन अब हालात बदल गए हैं, इसे शिफ्ट करने की बात पर ही बवाल होने लगता है। जिस भी जगह का चयन किया जाता है, स्थानीय जनता विरोध में सड़कों पर उतर जाती है। दिल्ली में इतनी खाली जगह भी कही बची नहीं। विगत सालों में बढ़ती आबादी की वजह से रिहायशी कॉलोनियों का काफी विस्तार हुआ है। कूड़ा प्रबंधन की कोई ठोस नीति बन ही नहीं पा रही है। कूड़े से बिजली बनाने का प्लांट लगाया जाता है, फिर उसे फेल बताया जाता है, उसे तोड़ दिया जाता है, लेकिन फिर नया प्लांट लगाया जाता है। सारा कुछ समझ से परे है। बाहर से देखने भर से बड़ा घालमेल दिखता है। A हो या B हो या C, हर सियासी दल का दामन इसमें दागदार नजर आता है।