कैश कंट्रोल करने के चक्कर में करप्शन आउट ऑफ कंट्रोल!
बहुत तेज आवाज आ रही थी, पूरी बिल्डिंग हिल रही थी। नीचे देखा तो एक आदमी इलाके में एक मशीन से अकेला ही गली के फर्श को तोड़ रहा था। पास ही एक टैक्टर पर जेनरेटर चल रहा था। पास जाकर देखा तो काम काफी मेहनत भरा लगा। मशीन नीचे से नुकीली थी। जिसे जोर से मोटे कंक्रीट के फर्श पर दबाना पर रहा था। धीरे धीरे वो धंस जाती और फिर फर्श टूट जाता। इस पूरे प्रोसेस में जिस किस्म का वाइब्रेशन उस आदमी का शरीर झेल रहा होगा इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं। तेज आवाज, धूल और धुआं अलग से। उससे पूछा कि इस काम के कितने पैसे मिलते हैं?
उसने बताया कि दिन के केवल 500 रुपए। इस काम के साथ ट्रैक्टर भी उसे ही चलाना पड़ता है। मोटे तौर पर समझ में यही आया कि कम से कम तीन आदमी का काम इस एक आदमी से लिया जा रहा है। बावजूद इसके सरकार द्वारा निर्धारित मेहनताने से भी ठेकेदार उसे बहुत कम दे रहा है। दिल्ली जल बोर्ड का काम है, जिसके चेयरमैन मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल हैं, वाइस चेयरमैन पार्टी के धारदार नेता राघव चड्ढा हैं। सरकार जिस पार्टी की है उसकी पंच लाइन है – ‘भ्रष्टाचार मुक्त भारत हमारी मांग नहीं हमारी जिद है’। अगर ऐसी स्थिति में भी अगर मजदूर के हाथों तक वाजिब मेहनताना नहीं पहुंच पा रहा है तो क्यों न कहा जाए कि अन ऑर्गेनाइज्ड सेक्टर यानी असंगठित अर्थव्यवस्था को व्यवस्थित करने के नाम पर महज भ्रम फैलाया जा रहा है। राजधानी दिल्ली में ऐसा हो रहा है, केन्द्र और राज्य की क्रांतिकारी सरकारों की नाक के नीचे सिविल लाइंस इलाके में ऐसा हो रहा है। तो फिर दूर ग्रामीण भारत में असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए कितना कुछ किया जा रहा होगा आसानी से समझा जा सकता है।
भ्रष्टाचार मुक्त भारत और असंगठित अर्थव्यवस्था को सुधारने के नाम पर इतना कुछ पिछले कुछ सालों में देश ने देखा। इतना सियासी शोर सुना। बातों में आकर जनता ने जबरदस्त तरीके से सत्ता परिवर्तन तक कर दिया। लेकिन लंबा समय निकलने के बाद भी क्या गरीब मजदूरों के श्रम को सही सम्मान मिल रहा है, समय रहते देश को इस दिशा में सोचने की जरूरत है।
जमीन पर यदि सुधार नहीं दिख रहा है तो फिर क्या मान लिया जाए कि कोई बड़े लेवल की साजिश ही चल रही है। जो राहुल गांधी कह रहे हैं..या कहें कि पूर्व प्रधानमंत्री और अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह कहते रहे हैं कि असंगठित अर्थव्यवस्था को खत्म करने की दिशा में तेजी से काम किया जा रहा है। बड़े पैसे वालों के हाथों में इसे सौंपने की तैयारी है। राहुल नोटबंदी से लेकर लॉकडाउन तक को इसी नजरिए से देखने की बात कहते हैं। और इसे देश की आर्थिक सेहत के लिए अच्छा नहीं मानते हैं।
चलिए राहुल गांधी की बात नहीं मानते हैं..मनमोहन सिंह तक को नकार देते हैं। लेकिन इस सच से तो इंकार नहीं किया जा सकता है कि नोटबंदी में तकरीबन सारे पुराने बड़े नोट काले-सफेद तरीके से वापस बैंकों तक पहुंचे। जीएसटी कलेक्शन का सही फॉर्मूला तैयार करने और इसकी चोरी पर लगाम लगाने में सरकार अभी तक नाकाम रही है। और लॉकडाउन ने तो रही सही कसर पूरी कर दी, जीडीपी की बुरी हालत इसे बताने के लिए काफी है।
खबरें बता रही हैं कि पैसे वाले या तो जमकर पैसे से पैसा कमाते जा रहे हैं या फिर जो ऐसा नहीं कर पा रहे हैं, अपना पैसा नहीं बचा पा रहे हैं वे देश छोड़ कर भाग रहे हैं। चौपट हुआ है तो असंगठित क्षेत्र से जुड़े लोगों का काम धंधा। नीचे के लेवल पर काम के अवसर कम हुए तो शोषण काफी बढ़ गया।
कंस्ट्रक्शन हो या मैन्युफैक्चरिंग, इन पर नकेल कसने के नाम पर जो भी किया गया सबके उल्टे परिणाम देखने को मिले। कैश कंट्रोल करने के चक्कर में करप्शन के रेट हाई हो गए। सारे नियम कानून नकारे और भ्रष्ट नौकरशाही की भेंट चढ़ गए। असंगठित क्षेत्र के सबसे ज्यादा कामगार इन्हीं क्षेत्रों में काम करते रहे हैं। आंकड़ों पर नजर डाले तो साफ लगता है कि नोटबंदी और जीएसटी की वजह से कंस्ट्रक्शन और मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर सबसे ज्यादा प्रभावित हुए। तो वहीं लॉकडाउन ने ट्रेड और टूरिज्म की कमर तोड़ दी। मौजूदा हालात सबके सामने हैं..करोड़ों की संख्या में लोग अपनी नौकरी गंवा रहे हैं।
सबसे ज्यादा रोजगार देने वाले देश के असंगठित अर्थव्यवस्था के बड़े सेक्टरों का यूं बर्बाद होना..सवाल तो खड़े करता है। जरूरत है कि सियासत से परहेज करते हुए केंद्र और राज्य की सरकारें..समय रहते संगठित तरीके से देश के असंगठित अर्थ और उससे जुड़े श्रम को संभालने की सोचें।