मैं दिल्ली के बेहद ही खास सिविल लाइन्स इलाके के नेहरू विहार के ए-ब्लॉक स्थित पार्क का एक अदना सा जामुन का पेड़ हूं। जब तक मैं पतला दुबला अपनी सीध में खड़ा था तब तक तो सब ठीक था..लेकिन धीरे धीरे मैं पार्क की दीवार के उपर झुकता चला गया..इतने तक भी कुछ खास परेशानी नही थी। लेकिन गुजरते वक्त के साथ मेरा वजन बढ़ता गया..मेरे तने की मोटाई बढ़ती गई। मेरे वजन से दीवार पर लगी लोहे की मोटी जाली दबती जा रही है। मेरी हालत दिनोदिन बिगड़ती जा रही है। मेरी मौजूदगी लोगों के डर का सबब बनती जा रही है। मेरे गिरने से पास रहने वाले लोगों के जान-माल को नुकसान हो सकता है। ये बात मुझे ज्यादा सालती है। मुझे हैरानी होती है कि मेरी सेहत के लिए जिम्मेदार सिस्टम ने मेरी सुध क्यों नही ली? वक्त रहते मुझे सीधा करने का प्रयास क्यों नही किया गया? किसी भी दिन दीवार टूट सकती है..तेज हवा झेलने की स्थिति में मैं खुद को नही पाता हूं। अभी पिछले दिनों ही मेरे साथ का एक पेड़ तेज हवा के झोंके से टूट कर गिर गया था, दो-तीन गाड़ियां छतिग्रस्त हुईं थी। और तो और एक बार मैं गिरी या फिर मेरे बढ़ते वजन से पार्क की दीवार टूटी तो मेरे इस छोटे से पार्क का अस्तित्व ही खतरे पड़ जाएगा। इसे कूड़ाघर में तब्दील होने से कोई नही बचा पाएगा। क्योंकि अभी हीं पार्क के आसपास के नालायक किस्म के लोग यहां कूड़ा डालने से नही चूकते। जो काफी दिनों की मशक्कत के बाद ही हट पाता है। जब मैने अपनी व्यथा एमसीडी के स्थानीय पार्क अनुभाग तक पहुंचाई तो पता चला की मेरा पार्क तो उनके जिम्मे आता ही नही। बावजूद इसके काफी मनुहार के बाद भी वो मेरी देखभाल को नही माने। इसके साथ ही शुरू हुई मेरे वजूद की सरकारी पहचान की तलाश। पता चला कि किंग्जवे कैंप स्थित बीबीएम डिपो के ठीक सामने वाले डीडीए के दफ्तर में बैठते है मेरी सेहत के लिए जिम्मेदार अधिकारी। वहां उस दफ्तर के छोटे से लेकर शीर्ष अधिकारी तक काफी मशक्कत के साथ अपनी बात पहुंचाने के बाद, बड़ी ही मुश्किल से एक आश्वासन मिला कि पहले उनका एक कर्मचारी मेरी हालत का जायजा लेने आएगा। तभी कुछ समाधान मिल पाएगा। हालांकि थोड़ी सी काट-छांट की बात पर अधिकारीगण एनजीटी के सख्त दिशा निर्देशों की आड़ में अपने नकारेपन को छिपाने में नाकाम दिखे। एनजीटी के आदेश के विरूद्ध मेरे सामने बिखरे बिल्डिंग मैटेरियल किसी को नही दिखते..लेकिन मेरी देखभाल के वक्त एनजीटी का हवाला..ये ठीक नही। और तो और वो बड़ी ही बेशर्मी से अपने पास पार्कों के रख रखाव के लिए किसी भी तरह की व्यवस्था नही होने की बात कहने से भी नही चूके। इसे अपनी बड़ी लाचारी बताने में भी नही झिझके। जबकि एमसीडी वाले बता रहे थे कि पास के गांधी विहार में ही उनसे संबंधित हॉर्टिकल्चर केन्द्र है जो डीडीए के पार्कों का रखरखाव करता हे। खैर उनका एक कर्मचारी मुझे देखने आया। उसने मेरे से जुड़ी सारी परेशानियों को लेकर हामी भी भरी। लेकिन उसने एक ऐसी बात कह दी जिसने मुझे अंदर तक झकझोर कर रख दिया। उसने कहा कि मेरे पार्क के डीडीए के तहत होने की जानकारी उसे है ही नही। हालांकि उसने अपनी तरफ से एमसीडी के कर्मचारी से अनुरोध किया कि वो मेरी थोड़ी कटाई छंटाई कर दें। लेकिन मेरी कहानी नया मोड़ ले चुकी थी। सरकारी सिस्टम का कोई भी विभाग मुझे अपना कहने को ही तैयार नही..मेरी सेहत की चिन्ता करना तो दूर की बात है।
मैं हार मानने वाला नही..जामुन का अदना पेड़ ही सही..राजधानी के सिस्टम के इस नकारेपन से रार स्वीकारता हूं। मेरे वजूद की…मेरी लड़ाई जारी रहेगी..जब तक मैं टिका हूं…टेढ़ा ही सही..जब तक मैं खड़ा हूं।