किसान बिल का सबसे मुखर विरोध पंजाब और हरियाणा से ही क्यों?
कृषि उपज की फ्री ट्रेडिंग से क्यों घबरा रहा है पंजाब और हरियाणा का सामर्थ्यवान किसान?
क्या उन्हें अन्य राज्य के किसानों से चुनौती मिल सकती है?
यूपी, बिहार या अन्य राज्यों के किसान चुप क्यों बैठे हैं?
इसमें कोई दो राय नहीं कि पंजाब और हरियाणा के किसानों की गिनती देश के सबसे समृद्ध किसानों में होती है। कृषि में निजी निवेश का लाभ इस इलाके के किसान लंबे समय से लेते आए हैं। फिर जब केंद्र सरकार कृषि में व्यापक स्तर पर निजी निवेश को प्रोत्साहन देने और पूरी व्यापार व्यवस्था को बंधन मुक्त करने के लिए विधेयक लाती है, और वो लोकसभा में पास भी हो जाता है, तो सबसे तगड़ा विरोध पंजाब में ही देखने को मिलता है। यहां तक केंद्र सरकार की सत्ता में साझेदारी कर रही शिरोमणी अकाली दल को दूरी बनाने के लिए बाध्य होना पड़ता है।
विषय के जानकारों से बात कर के जो तथ्य सामने आए उसके हिसाब से कहा जा सकता है कि पंजाब और हरियाणा के किसान लंबे समय से सरकारी सरंक्षण और निजी निवेश में तालमेल बिठाते हुए अपने कृषि उपज पर उचित लाभ उठाते आ रहे हैं। अगर सरकार का नया विधेयक धरातल पर आता है तो उन्हें खतरा है सरकारी सरंक्षण कम होता जाएगा। फिर बदली परिस्थिति में उन्हें खुले बाजार की चुनौतियों का सामना अपने दम पर करना होगा। इसकी संभावना बहुत ज्यादा है कि अगर सब सरकार के नए नियमों के तहत चलता रहा तो जल्द ही एमएसपी और मंडी व्यवस्था अपना महत्व खो देंगी और उन्हें बंद करने की बात शुरू हो जाएगी। और जैसे ही ऐसा हुआ खुले बाजार का निरंकुश रूप सामने आ सकता है। जो कि किसानों को अभी से डरा रहा है। चूंकि वहां की सियासत में किसान सीधी दखल रखते हैं..इसलिए शोर ज्यादा है।
रही बात यूपी के किसानों की, वहां का किसान राजनैतिक नेतृत्व के अभाव से जूझ रहा है। डर तो उन्हें भी सता रहा है। मान तो वे भी रहे हैं कि एमएसपी और मंडी व्यवस्था का कमजोर होना घातक हो सकता है। लेकिन उनके डर को हवा देना कहें या संबल देने का काम करने वाला कोई सियासी दल सक्रीय नहीं है। जो उन्हें एकजुट कर सरकार पर किसी तरह का दबाव बना सके।
बिहार के किसानों की जो हालत है वही वह मॉडल है जिसका डर दूसरे राज्यों के किसानों को आज डरा रहा है। दरअसल बिहार में मंडी व्यवस्था सालों पहले खत्म कर दी गई थी। बाद के समय में जिसका जबरदस्त नुकसान वहां का छोटा और मझोला किसान झेलता रहा है। अपनी उपज को सीमित खरीददारों की लॉबी को औने पौने दाम पर बेचने के लिए वे बाध्य होते हैं। जानकार इसे बड़ी वजह बताते है जिससे वहां का छोटा किसान दूसरे राज्यों में कृषि मजदूर के रूप में काम करने को बाध्य होता रहा है। मोटे तौर पर ये बड़ा कारण है जिसकी वजह से वहां की बेहतरीन उपजाऊ जमीन भी किसानों को खुशहाल नही कर पा रही।
कुल मिला कर समझने वाली बात यही है कि एमएसपी और मंडी की सरकारी व्यवस्था देश के किसानों को सरंक्षण और आत्मबल देने का काम करती है। उन्हें ताकत का एहसास करवाती है। कम से कम एक रेट और एक जगह तो उन्हें निर्धारित मिलता है। जिसके आधार पर वे खुले बाजार में अधिक की उम्मीद से आगे बढ़ पाते हैं। जिसका खत्म होना या किसी भी रूप में कमजोर होना उनके डर को बढ़ा देता है। रही बात कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग की, पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों के बड़े समृद्ध किसानों को यह सूट करता है। लेकिन यूपी बिहार के छोटे मझोले किसान इसे अपने स्वभाव और संस्कृति के विपरित मानते हैं। खेती किसानी का काम उनके जीवन का अभिन्न हिस्सा है। हर छोटी बड़ी जरूरत उन्हें खेतों की तरफ ले जाती है। जो कि कॉन्ट्रेट फारमिंग में बाधित हो सकती है। इसीलिए किसान इसे स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं।
सरकार की पहल को सकारात्मक नजरिए से भी देखा जाए तो भी इतना तय है कि कुछ ऐसे पहलू हैं जिन पर विचार करना ही होगा, जैसे कीमत तय करने का स्थाई मैकेनिज्म बिल का स्थाई हिस्सा होना, जमाखोरी पर अंकुश के प्रावधान आदि। बिना किसानों में भरोसा जगाए बिल की दिशा में कदम बढाना घातक हो सकता है। क्योंकि इस देश की आत्मा खेतों में बसती है..आत्मा को ऑपरेट नहीं किया जाता..इसे हील किया जाता है।