हमने सुना था या फिर सिर्फ किताबों में पढ़ा था कि देश में अकाल पड़ता था..महामारी आती थी..लाखों लोग मर जाते थे। एक आंकड़ा बताता है कि 1854 से 1901 के बीच 2 करोड़ 88 लाख 25 हजार से अधिक लोग देश में अकाल की वजह से मरे। केवल 1896-97 के अकाल में करीब 45 लाख लोग मरे। समय समय पर आने वाले अकाल और बड़ी संख्या में अपनों को खोने की वजह से देश समझ सका कि ये सब अंग्रेजों की गलत नीतियों की वजह से हो रहा है। वरना अंग्रेजी शासन से पहले इस संसाधन संपन्न देश ने कभी इस तरह की आपदा नहीं झेली थी। इसी समझ ने देश के अंदर अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जनादेश तैयार करने में बड़ी भूमिका निभाई और देश में बड़ा परिवर्तन संभव हो सका।
आज हम में शायद ही कोई ऐसा हो जिसने किसी अपने को नहीं खोया हो। कोई दोस्त, कोई रिश्तेदार, कोई न कोई हमें छोड़ कर जा ही रहा है। दिलो दिमाग अनिष्ट की आंशका से डरा सहमा सा है। फोन की घंटी डराने लगी है। जिस तरह की आपदा का सामना देश कर रहा है। जिस तरह से राजनीतिक नेतृत्व फेल दिख रहा है। सिस्टम को चलाने वाले नाकाम दिख रहे हैं। नहीं तो, देश में पर्याप्त ऑक्सीजन के उत्पादन के बावजूद लोग सड़कों पर ऑक्सीजन के अभाव में दम तोड़ते नहीं दिखते। वो भी एक दिन नहीं, दस दिनों तक लगातार। एक दो नहीं, दस बीस एक साथ। क्या किसी ने देखा कि हेलिकॉप्टर से सिलेंडर कहीं पहुचांया गया हो? हां, चुनाव प्रचार के लिए नेताओं को एक दिन में एक साथ कई क्षेत्र फटाफट कवर करते देश देखता रहा है।
जरा सा ठहर के देखें तो साफ लगता है कि सारे के सारे जिम्मेदार लोग जिम्मेदारी निभाते बस दिखना चाहते हैं। उनका जन सरोकार से कोई लेना-देना नहीं नजर आता। नहीं तो, देश के वैज्ञानिक सलाहकार मीडिया में आकर कोरोना की तीसरी लहर की जानकारी का इस्तेमाल आम लोगों को डराने के लिए नहीं करते, उनकी सलाह पर सरकार किस तरह से आगे की तैयारी में जुटी है ये बताने के लिए करते।
खैर, एक की बात क्या की जाए, लिस्ट लंबी है। देश भी भली भांति जानता है कि ज्यादातर सेटिंगबाज ही शीर्ष पदों पर पहुंचते हैं आजकल। हद तो तब लगती है जब देश के सबसे बड़े स्वास्थ्य विभाग के सबसे बड़े अधिकारी देश को डबल मास्क का ज्ञान दे रहे होते हैं और उनका ही मास्क नाक पर नहीं ठहर रहा होता है।
आज और अब से चर्चा इन सब बातों पर नहीं होनी चाहिए। बात और विचार अब बदलाव की दिशा में होनी चाहिए। सेटिंगबाजी संस्कृति की काट तैयार करने की दिशा में होनी चाहिए।
दुर्भाग्यपूर्ण नहीं तो और ये क्या है कि देश का एक पूर्व सांसद अपनी जान की परवाह किए बिना लोगों की जान बचाने में जुटा है। और मौजूदा सांसद अपने घर के पिछवाड़े में एंबुलेंसों को ढ़क कर बैठा है। वो भी ऐसे स्वास्थ्य संकट की घड़ी में। बिहार ने जिस तरह का दृश्य देखा है, बीजेपी के सांसद राजीव प्रताप रूडी और पूर्व सांसद पप्पू यादव को परखा है। इससे बिहार की जनता अगर अब भी नहीं समझ सके कि किस तरह के लोगों के हाथ में कमान देनी है तो ये जरूर हैरानी की बात होगी। इसे पार्टी के दायरे में बांध कर नहीं देखा जाना चाहिए। पार्टियों को बाध्य होना पड़े, जनादेश कुछ ऐसा बने।
अब तो आर-पार का समय है। देश को प्रशासक देने वाली संस्था यूपीएससी की साख भी दांव पर लगी है। अभी तक अंग्रेजों वाली मानसिकता से बाहर नहीं आ पा रही ब्यूरोक्रेसी। शासन नहीं सेवा लक्ष्य है सिविल सर्विस का, ये बात नहीं समझा पा रही। गिला यूपीएससी जैसी संस्थाओं से भी नहीं करने का वक्त रह गया अब। अब कुछ ऐसा करने का वक्त है, जिससे देश बच सके, जनता की जान पर फिर ऐसी आफत ना आए कभी। पिछले एक साल में कई ऐसे छोटे बड़े अधिकारी मीडिया की सुर्खियां बने जिन्होंने इस कोरोना काल में बेहतरीन काम किया या कर रहे हैं। देश में ऐसी व्यवस्था क्यों नहीं बन सकी जिससे कि इन्हीं लोगों को शीर्ष पदों की तरफ बढ़ाया जाता रहता। इनके ही प्रोफाइल और प्रभाव क्षेत्र बढ़ाया जाता। अगर ऐसा हो सकता तो आज एक्सीक्यूशन यानी क्रियान्वन के स्तर पर इस तरह के हालात देखने को नहीं मिलते।
अभी तो देश में मझधार में ही है, पता नहीं आपदा कब थमेगी। लेकिन बेहतर विचार जरूर बनते रहने चाहिए। अपने प्रियजनों को जाने का गम हमारे अंदर कुछ ऐसे विचार जगाए, जिससे हम बड़े बदलाव की दिशा में बढ़ सकें। आने वाली पीढ़ी को बेहतर भारत दे सकें। और यकीन मानिए..यही जाने वाले प्रियजनों को सच्ची श्रंद्धांजली भी होगी।