40 की उम्र में गाड़ी ली, 55 में छीन ली!
दिल्ली की सत्ता बदली, व्यवस्था बदलने की आस जगी. लेकिन जैसे-जैसे नई सरकार कदम आगे बढ़ा रही है, लगने लगा है सरकार अपनी सोच और संवेदना की बजाए ब्यूरोक्रेसी के बहकावे में आगे बढ़ रही है. दिल्ली की वो ब्यूरोक्रेसी जो पिछले 10 सालों से जनता को बेहतर सुविधा देने की बजाए, उसकी दुखती नब्ज तलाशने और फिर उसे दबाने पर काम करती रही. इतना ही नहीं, किसी भी समस्या पर हो-हंगामा बढ़े, उससे पहले जनता पर ही कुछ ऐसा थोप देने में माहिर रही जिसमें वो उलझ कर रह जाए.
प्रदूषण एक ऐसा ही मसला रहा. प्रदूषण पर हल्ला कम हो, इसके लिए अफसरों ने एक फॉर्मूला निकाला कि 15 साल पुरानी गाड़ियों को बाहर किया जाए. इस पर तूफानी रफ्तार से काम किया गया, क्योंकि इससे एक साथ कई सारे फायदे थे. जनता का ध्यान तो बटेगा ही, साथ-साथ कबाड़ियों से सांठ-गांठ करके अच्छी कमाई भी होगी. हालत ऐसी हो गई थी कि अगर किसी ने अपने निजी पार्किंग से जरा सी देर के लिए पुरानी गाड़ी बाहर निकाली नहीं कि गाड़ी उठ जाती थी. बताया तो यही गया कि दिल्ली परिवहन विभाग ने कबाड़ियों के साथ मिलकर हर मोहल्ले में एजेंट छोड़ रखे थे. जिनका काम ही यही था, पुरानी गाड़ियों की जानकारी इकट्ठी करके उनके नाम की सरकारी पर्ची तैयार करवाना. एक दौर चला जमकर गाड़ियां उठाई गई. दिल्ली वाले आतंकित हो गए. दिल्ली परिवहन के दफ्तर पर भीड़ इकट्ठी होने लगी. कई सारे मामले कोर्ट पहुंचने लगे. आखिरकार हाई कोर्ट की दखल के बाद ठहराव आया.
ऐसे तो हालात बने थे तब, अब फिर कुछ वैसा ही होने का अंदेशा होने लगा है, क्योंकि सरकार नई है लेकिन अधिकारी पुराने हैं. जैसे ही दिल्ली सरकार के नए नवेले मंत्री मनजिंदर सिंह सिरसा ने ऐलान किया कि 15 साल पुरानी गाड़ियों को पंप से तेल ही नहीं मिला करेगा. इसे सुनने के बाद पहला ख्याल यही आया..मंत्री जी अफसरों के उसी पुराने ट्रैप में फंस गए!
जरा सोचिए, अमेरिका जैसे अमीर देश के भी ज्यादातर हिस्सों में पुरानी गाड़ियां तब तक चलाई जा सकती हैं जब तक उन्हें प्रदूषण विभाग से क्लियरेंस मिलता रहता है. बेशक गाड़ी कितनी भी पुरानी क्यों न हो जाए. ऐसा भारत में क्यों नहीं हो सकता? क्यों सरकारें गाड़ी कंपनियों की एजेंट की तरह व्यवहार करती है?
जरा सोचिए..भारत में तो आदमी अपनी पसंद की गाड़ी ही चालीस-पैतालिस साल की उम्र में खरीद पाता है, जब वो अपने करियर के पिक पर रहता है. जब वो 55 पार कर रहा होता है और उसका करियर ढलान पर होता है, सरकार उससे उसकी गाड़ी छिन लेती है. संभव है, उम्र के उस पड़ाव में वो महंगी गाड़ी खरीदने की स्थिति में ही न हो. सरकारी नौकरी वाले तो फिर भी सेफ हैं, प्राइवेट नौकरी करने वालों पर तो उस वक्त रिटायरमेंट का डर हावी होने लगता है. ऐसे वक्त में किसी की गाड़ी छिनने का मतलब तो यही होगा..सरकार उम्र के उस पड़ाव पर आदमी से सम्माजनक तरीके से जीने का हक छीन रही है. समझ नहीं आता, सरकारें इस मसले को लेकर इतनी असंवेदनशील क्यों हैं? जबकि शोध से ये पता चल चुका है कि निजी गाड़ियों से प्रदूषण का शेयर बहुत ही कम है. इस मसले पर सरकारों का सख्त रवैया देख कर तो यही लगता है कि भ्रष्ट नौकरशाही सत्ताधारी दल के नेताओं की स्वतंत्र सोच पर ग्रहण की तरह है!