कोरोना महामारी के बीच एक बार फिर नैतिकता पर बहस तेज होती जा रही है। दुनिया में एक ओर जहां कमजोर और आर्थिक रूप से पिछड़े हुए देश कोरोना वैक्सीन जुटाने में पस्त हुए जा रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ अमेरिका और ब्रिटेन जैसे विकसित देश अपने नागरिकों को कोरोना वैक्सीन की बूस्टर डोज देने की तैयारी कर रहे हैं। मतलब दो डोज देने के बाद तीसरे डोज की तैयारी। इस दिशा में इजरायल की सबसे आगे भाग रहा है। 30 जुलाई को ही वो अपने 60 वर्ष से अधिक उम्र वाले वाले नागरिकों को वैक्सीन की तीसरी डोज देने की बात कह चुका है। और 20 अगस्त से 40 से अधिक उम्र वालों को बूस्टर डोज देने में जुटा है। एक देश के लिहाज से, अपने नागरिकों के सेहत की चिन्ता की दृष्टी से ये नीतिगत फैसला सही कहा सकता है लेकिन नैतिकता की कसौटी पर इस फैसले को सही नहीं ठहराया जा सकता है।
ऐसा क्यों-
सबसे बड़ी बात, कोरोना महामारी की मार पूरी दुनिया पर समान रूप से पड़ रही है। इसमें कहीं कोई भेद नहीं है अमीर और गरीब, सक्षम और असक्षम सभी देश इसकी विभिषिका का सामना कर रहे हैं। बीमारी का इलाज अभी तक किसी के पास नहीं है। सारी लड़ाई उसके असर पर नियंत्रण को लेकर है। सारे संसाधन उसी में झोंके जा रहे हैं। जिससे जैसा संभव हो सकता है वो देश अपने नागरिकों की जान बचाने की जी-तोड़ कोशिश में जुटा है। एक बड़ी चुनौती संक्रमण को रोकने को लेकर है। सभी कोशिश कर रहे हैं कि उनके यहां कोरोना का कोई भी वेरिएंट किसी भी तरीके से एंट्री न कर सके। लेकिन आज की तारीख में ऐसा संभव होता नहीं दिखता। लाख प्रतिबंधों के बावजूद कही न कही से किसी न किसी देश से होते हुए कोरोना वायरस प्रवेश कर ही जा रहा है। मतलब साफ है कि आज जिस तरह ग्लोबल विलेज की पहचान और कनेक्टिविटी के साथ हम रह रहे हैं उसमें अपने को बिल्कुल दुनिया से डिसकनेक्ट करने की बात करना बेमानी है। ये छोटे बड़े किसी भी देश के लिए संभव नहीं है। पिछले डेढ़ सालों के अनुभव के आधार पर ऐसा बहुत ही स्पष्टता के साथ कहा जा सकता है। अब ऐसे माहौल में सिर्फ और सिर्फ अपने देश के बारे में सोचना, अपने नागरिकों की सेहत की चिंता करना व्यवहारिक रूप से ही सही, कहां तक जायज है। जबकि ऐसी परिस्थिति में ये बात साफ है कि कोरोना के संक्रमण पर रोक लगानी है तो इसे दुनिया भर में हर स्तर पर फैलने से रोकना होगा। यह बड़ी जिम्मेदारी विकसित देशों पर है। ये उनका उत्तरदायित्व है कि वे अपने संसाधनों और वैक्सीन की उपलब्धता को अविकसित और गरीब देशों के साथ साझा करें।
व्यवहारिकता के साथ ये बड़ा नैतिक सवाल तो है ही, एक ओर जहां दुनिया के गरीब देशों में कोरोना से मौत के आंकड़ों पर नियंत्रण संभव नहीं हो पा रहा, तो वहीं विकसित देशों में वैक्सीन के तीसरे डोज पर विचार हो रहा है। जबकि ये बात अब प्रमाणित की चुकी है कि वैक्सीन की एक डोज भी संक्रमण के दुष्प्रभाव को कम कर देती है। मरीज के मौत की संभावना कम हो जाती है।
वहीं तीसरे बूस्टर डोज के प्रभाव को लेकर अभी वैज्ञानिक भी कॉन्फिडेंट नहीं है। नहीं कहा जा सकता कि बूस्टर डोज से कितना फायदा होगा?
विश्व स्वास्थ्य संगठन, WHO के वरिष्ठ सलाहकार, वैज्ञानिक ब्रूस आयलवर्ड ने स्पष्टतौर पर कह दिया है कि बूस्टर डोज की आवश्यकता किसे होगी, ये बात अभी बिल्कुल भी नहीं कही जा सकती।
इसी वैज्ञानिक सोच की वजह से WHO और सबको वैक्सीन उपलब्ध करवाने की दिशा में काम कर रहे दुनिया के अन्य संगठन विकसित देशों में बूस्टर डोज वाले अभियान के खिलाफ हैं। उन्हें लगता है कि इस समय प्राथमिकता बिना वैक्सीन वाले लोग होने चाहिए, जिन्हें कम से कम एक डोज तो लग जाए। जितनी तेजी से दुनिया में वैक्सीन का विस्तार होगा उतनी ही जल्दी हम संक्रमण के दुष्प्रभावों को कम कर सकेंगे, ज्यादा से ज्यादा लोगों की जान बचा सकेंगे। कोरोना के खिलाफ जारी इस जंग में हमारी स्थिति मजबूत होगी।
डॉक्टरों और अन्य कोरोना वारियर्स को अगर बूस्टर डोज की आवश्यकता महसूस होती है तो बात फिर भी समझ में आती है। वे फ्रंट लाइन पर रह कर कोरोना वायरस का मुकाबला कर रहे हैं। कोरोना के खिलाफ मानवता की लड़ाई लड़ रहे हैं। उनकी जान बचाने के लिए कुछ ज्यादा परहेज भी जायज है। क्योंकि ये हमारी स्थिति को मजबूत करने का ही काम करेगी। लेकिन सिर्फ प्रिकॉशन के लिए अतिरिक्त वैक्सीन का इस्तेमाल सही नहीं होगा।
एक अनुमान के मुताबिक अगर विकसत देश अपने नागरिकों के लिए बूस्टर डोज प्लान करते हैं तो तकरीबन एक अरब से ज्यादा खुराक की आवश्यकता होगी। सीधे शब्दों में कहा जाए तो ये उन गरीब देशों के नागरिकों के साथ अन्याय ही होगा जो अभी भी वैक्सीन के इंतजार में हैं।
दुनिया की 39.7 प्रतिशत आबादी को अब तक वैक्सीन की एक डोज लग चुकी है।
5.24 बिलियन डोज अब तक लगाई जा चुकी है, रोजाना 38.46 मिलियन डोज दुनिया भर में लग रही है।
वहीं गरीब देशों के केवल 1.6 प्रतिशत आबादी को ही अब तक वैक्सीन का बस एक डोज लग पाया है।
ये आंकड़े बताते हैं कि परिस्थिति कितनी गंभीर है। दुनिया की सेहत के लिहाज से हम कितने पीछे हैं। जब तक दुनिया के किसी भी कोने में कोरोना का कोई सा भी वेरिएंट मौजूद है वो हमारी लड़ाई को कमजोर करता ही रहेगा। हम बार बार जीत कर भी हारने के लिए बाध्य होंगे। इसलिए विकसित देशों को वसुधैव कुटुंबकम की भावना से काम करना होगा। पूरे विश्व में वैक्सीन की समान उपलब्धता की दिशा में काम करना होगा। तभी कोरोना हारेगा और हम जीतेंगे।