जनता का समर्थन पाने के चक्कर में केंद्रीय मंत्री नारायण राणे की जुबान क्या फिसली हंगामा हो गया। इतना ही तो कहा कि मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को स्वतंत्रता के साल को लेकर कन्फ्यूजन की बात अगर वे सामने से सुनते तो तभी सीएम को थप्पड़ लगा देते। बात तो ये भी ठीक नहीं कही जा सकती, लेकिन जैसा हंगामा शिवसैनिकों ने पूरे सूबे में किया उसे देख कर हैरानी जरूर हुई, क्या शिवसेना को अच्छी जुबान और गंदी जुबान का फर्क पता है? जो पार्टी बदजुबानी के मामले में हमेशा ही मर्यादा की सीमा का उल्घंन करती रही है, बदजुबानी में उनके लेवल के हिसाब से राणे की बात में इतनी बुरी लगने वाली बात तो नहीं दिखती?
अभी तक तो देश में शिवसेना की छवि संस्कारहीन वाली ही रही है। कभी भी, कहीं भी, किसी भी मुद्दे पर हंगामा करती नजर आती रही है पार्टी, वो भी बहुत बुरे ढंग से, बदजुबानी के भरपूर डोज के साथ। जब भी कहीं से भी कोई सुधार के संकेत सामने आते हैं, अपना प्रभाव बनाते हैं, उसी समय उनका मुखपत्र ‘सामना’ कुछ ऐसा लेकर सामने आ जाता है जो सब किए कराये पर पानी फेर देता है।
कहा तो ये भी जा रहा है कि नारायण राणे की जो वाक शैली है वो ठीक शिवसेना वाली ही हैं। जिसकी ट्रेनिंग उन्हें शिवसेना के शिविरों में ही मिली है। किसी को भी नहीं बख्शते हैं शिवसेना वाले, कोई भी, किसी भी ओहदे पर बैठा आदमी उनकी बोली से छलनी हो सकता है। उद्व ठाकरे के बारे में ये बात आम है कि जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री पद पर थे तब भी वे उनके बारे में बड़े बुरे, आपत्तिजनक शब्दों का इस्तेमाल किया करते थे। बाल ठाकरे के बारे में बात करना उचित नहीं होगा, लेकिन मिलाजुला कर कहना गलत नहीं होगा कि शिवसेना की शैली कुछ ऐसी ही बदजुबानी वाली और आक्रमक रही है।
अब ऐसे में जिस तरह की प्रतिक्रिया शिवसैनिकों ने पिछले दो दिनों में नारायण राणे की बदजुबानी पर दिखायी है उसे देख कर क्या उम्मीद की जा सकती है कि शिवसेना वाले समझदार हो गए, संस्कारी हो गए, अब उन्हें गंदी जुबान बुरी लगने लगी है। अब वे भी आगे से इससे परहेज करेंगे..?