एक चलन सा चल पड़ा है, ये बताने का कि हमारे जाति या धर्म के लोग बहुत बहादुर होते हैं। इस बात की पुष्टि के लिए इतिहास की घटनाओं का रेफेरेन्स दिया जाता है। बहुत ही मजबूती के साथ जाति या धर्म विशेष के लोगों को मूलत: बहादुर साबित करने की कोशिश की जाती है। यूं तो इस तरह के उदाहरण कमोवेश हर धर्म में, और थोड़े बहुत हर जाति में मिल जाएंगे। लेकिन विशेष रूप से देश के अल्पसंख्यक समुदायों के बीच ऐसा ज्यादा देखने को मिलता है। बढ़-चढ़ कर अपने धर्म के लोगों को बहादुर बताना। कभी न हारने वाले एक लड़ाके की भूमिका में दिखाने की प्रवृति कई बार परेशानी की बड़ी वजह बनती दिखती है।
जिस तरह से 26 जनवरी को, गणतंत्र के पावन पर्व के मौके पर लाल किला के प्राचीर पर, तिरंगे की मर्यादित जगह पर सिख धर्म का झंडा फहराया गया। सुरक्षा में जुटे दिल्ली पुलिस के जवानों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा गया। तलवारें भांजी गईं। देश की मर्यादा के साथ खिलवाड़ किया गया। कोई भी वजह बता कर, किसी भी तर्क के सहारे इस घटना को सही नहीं ठहराया जा सकता। इसके सभी गुनहगारों को सख्त से सख्त सजा मिलनी ही चाहिए।
रही बात सिख सम्मान की, सरदारों ने अपनी कर्मठता और बहादुरी से देश में ही नहीं सारी दुनिया में सम्मान हासिल किया है। लेकिन जिस तरह से पिछले कुछ दिनों से देश के आतंरिक मामले में कनाडा में बैठे खालिस्तान समर्थकों की घुसपैठ देखने को मिली है, सारा देश इससे चिंतित हैं। अभी तक जिस तरह के प्रमाण सामने आ रहे हैं, इससे तो यही लगता है कि आंतकी विचारधारा वाले चंद लोगों ने अपने पैसे के दम पर, देश के कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों और एक्टिविस्ट टाइप के लोगों को अपना मोहरा बना लिया है। ये लोग तो पीछे रहे, आगे कर दिया उन लोगों को जो कृपाण और तलवारें लहराते हुए लाल किला परिसर में घुसे और जम कर उत्पात मचाया। जाहिर है ये सब खुद को बहादुर समझने वाले लोग ही थे। जिन्होंने बहकावे में आकर देश को तो नकारा ही, अपने गुरु गोविंद सिंह का भी अपमान किया। उनके उपदेशों में साफ लिखा है कि जब बाकी सभी तरीके विफल हो जाएं, तभी हाथ में तलवार उठाना चाहिए। असहायों पर अपनी तलवार चलाने के लिए उतावले मत हो, अन्यथा विधाता तुम्हारा खून बहाएगा।
इन दिनों दिल्ली सिख गुरुद्वारा मैनेजमेंट कमिटी की तरफ से एक वीडियो प्रचारित किया जा रहा है। जिसमें सिखों के साहस और बहादुरी का बखान है। पाकिस्तान के रिटायर्ड मेजर जनरल मुकीम खान की किताब – ‘पाकिस्तान्स क्राइसिस ऑफ लीडरशिप’ के हवाले से बताया गया है कि साल 1971 की लड़ाई में पाकिस्तान की फौज बड़ी तेजी के साफ भारत की सीमा में घुस रही थी, लेकिन सिख रेजीमेंट से टक्कर ने पाकिस्तानी सेना के हौसले पस्त कर दिए। ऐसा ही कुछ बांग्लादेश युद्ध में भी देखने को मिला। मुकीम खान ने लिखा है कि सिखों का शहीदी के प्रति प्यार, सुरक्षा के लिए मौत का उपहास और देश के लिए सम्मान उनकी विजय की वजह बना। सिख बहादुर होते हैं।
जाहिर है बहादुरी जगाने वाला जो संदेश इस वीडियो के जरिए देने की कोशिश की जा रही, वो बिल्कुल सही है, लेकिन ये कोई नई बात नहीं है। देश भर में सिख सरदारों की छवि हमेशा से ही कर्मठ और बहादुर वाली रही है। आज देश में जिस तरह के हालात हैं, आवश्यकता है कि देश के सम्मान वाली बात पर ज्यादा फोकस किया जाए। ये बात जरूर बताई जाए कि बहादुरी कब सम्मान पाती है और कब सजा पाती है? इसका फर्क जरूर समझाया जाए।
चाहे सिख हो या मुस्लिम, दोनों की ही इस देश के निर्माण में अहम भूमिका रही है। इससे बिल्कुल भी इंकार नहीं किया जा सकता। इस बात को बहुत ही स्पष्टता के साथ समझना होगा कि साल 1947 के बाद का भारत, विशेषकर साल 1950 में संविधान स्वीकारने के बाद का भारत, पुराने किसी भी भारत से बहुत ज्यादा भिन्न है। इतिहास में भारतीय प्रायद्वीप का इतना एकीकृत स्वरूप कभी नहीं रहा। इस बात को मानते हुए, आगे ये मानना होगा कि आजादी के बाद का ये जो भारत है इसमें सभी समान हैसियत वाले हैं। जाहिर है इसकी सुरक्षा और सम्मान को बनाए रखने की जिम्मेदारी भी सभी धर्म के लोगों की भी बराबरी वाली ही है।