दिल्ली के निजामुद्दीन मरकज की घटना भुलाए नहीं भूलती। एक तरफ कोरोना महामारी का खतरा उस पर तबलीगी जमात से जुड़े लोगों का देश भर में फैल जाना। जाहिर है खतरा बड़ा था, लेकिन आज की तारीख में पलट कर देखा जाए तो साफ लगता है कि उस पर उठा सियासी बवंडर उससे भी ज्यादा बुरा था। ऐसा साबित किया जाने लगा कि किसी बड़ी आतंकी साजिश के तहत देश में जमात से जुड़े लोगों को फैलाया जा रहा है, ताकि कोरोना वायरस की घातक विस्फोटक स्थिति देश को तबाह कर दे।
ये सब तब हो रहा था जब सबको पता था कि मरकज से जुड़े लोग बहुत सालों से इसी तरह देश विदेश से आकर निजामुद्दीन में इकट्ठा होते हैं, धार्मिक समागम की तरह, और फिर कुछ दिनों के बाद फिर चले जाते हैं। ये प्रक्रिया चलती ही रहती है। उस दौरान अचानक यातायात ठप होने की वजह से निजामुद्दीन मरकज में लोगों का जमावड़ा कुछ ज्यादा हो गया था। रही बात इसे आतंकी रंग देने की, समझ में आ रहा था कि ये असंभव सा है क्योंकि मरकज के बिल्कुल साथ निजामुद्दीन थाना है, बकायदा एक सब इंस्पेक्टर और कुछ पुलिसकर्मी की मरकज परिसर के बाहर ड्यूटी लगती रही है। इतने खुले रूप में इतनी बड़ी साजिश को अंजाम नहीं दिया जा सकता।
हां, कोरोना का खतरा नया था। सुस्त सरकारी सिस्टम तैयार नहीं था। देश क्या, दुनिया डरी हुई थी। जिसने जमीन तैयार कर दी, जिस पर सियासत जम कर चली। मुद्दा कोरोना का खतरा था, मुद्दा देश की सुरक्षा में सेंधमारी का था, मुद्दा दिल्ली पुलिस की नाकामी का था, लेकिन देश को उलझ दिया गया धार्मिक उन्माद में। सत्ता पक्ष ने अपनी नाकामी को छुपाया, विपक्ष उसे सामने नहीं ला पाया, नतीजा सबको पता है।
ऐसा ही कुछ अभी भी हो रहा है। कोरोना का खतरा अभी बना हुआ है। दवा के बस दावे भर हैं। ठोस इलाज पर सवाल कायम हैं। फर्क बस इतना है कि सिस्टम थोड़ा एलर्ट हो चुका है, वायरस को लेकर समझ थोड़ी बढ़ी है। लेकिन अभी-अभी जिस हालात से दिल्ली निकली है। जब हर दिन सौ लोग दम तोड़ रहे थे। केंद्र और दिल्ली दोनों ही सरकारों के हाथ-पांव फूल गए थे। लगभग पांच हजार लोग रोजाना संक्रमित हो रहे थे। ठीक उसी वक्त पंजाब के किसान दिल्ली में घुसने को आमदा थे। किसान कानून के खिलाफ विरोध प्रदर्शन की मांग को लेकर। चलिए इतनी समझदारी सिस्टम ने दिखाई। उन्हें दिल्ली की सीमाओं पर रोक दिया। लेकिन कोरोना का खतरा तो देश भर में है। महीने से ज्यादा का वक्त गुजर चुका है। दिल्ली की सीमाओं पर किसान डटे हैं। हजारों की संख्या में लोग इकट्ठा हैं। कहीं कोई मास्क लगाए नहीं दिखता। सोशल डिस्टेसिंग की तो बात ही बेमानी है। और तो और बड़ी संख्या में देश भर से लोग आंदोलन में आना जाना कर रहे हैं। सब कुछ सबके सामने हो रहा है।
सत्ता पक्ष ने आपदा में अवसर तलाशने से परहेज नहीं किया, तो किसानों ने भी धैर्य पीछे छोड़ दिया। विपक्ष की भूमिका भी अस्पष्ट सी दिखती है। जिन सुधारों का जिक्र वे खुद करते रहे, उसे ही सिरे से खारिज करते दिख रहे हैं। जबकि खेती किसानी से जुड़ी समस्याओं से इंकार नहीं किया जा सकता। किसानों की आत्महत्या के बढ़ते मामलों को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता।
कुल मिला कर मामला उलझा हुआ है। समाधान के आसार फिलहाल नजर तो नहीं आ रहे। लेकिन यहां इन सब सियासी खींचतान के बीच कोरोना के खतरे की चर्चा तक नहीं। सवाल सबसे बड़ा लेकिन सब मौन है। सत्ता पक्ष हो या विपक्ष देश को महामारी के खतरे से बचाने की जिम्मेदारी तो सबकी है। सुप्रीम कोर्ट को पूछना पड़ा कि क्या किसान आंदोलन में कोविड के खतरे को देखते हुए कुछ इंतजाम हो रहा है? सरकार की तरफ जवाब मिला, नहीं। सुनवाई तबलीगी जमात पर चल रही थी। सर्वोच्च अदालत ने कहा कि पहले तबलीगी जमा हुए अब किसान जमा हो गए। मुख्य समस्या पर बात करनी होगी। सरकार सुनिश्चित करे कि किसान आंदोलन में कोविड प्रोटोकॉल का पालन हो।
मतलब अभी सबसे बड़ी समस्या कोरोना है। नए किसान कानून से जुड़ा खतरा एक आकलन है। जितना समझ में आ रहा है, मौजूदा व्यवस्था पर सीधी चोट नहीं है। एक समानांतर व्यवस्था खड़ी करने की कोशिश है। जिस तरह लाख खामियों के बावजूद पंजाब के किसानों ने मौजूदा सिस्टम को अपने हित में बना लिया। अच्छा लाभ लिया। संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि वे लोग इन नए कानूनों को भी अपने अनुसार ढाल सकते हैं। क्योंकि वे देश के सबसे सामर्थ्यवान किसान हैं। देश के बाकी हिस्सों के किसान तो पहले भी उलझे हुए थे अभी भी लगता है उन्हें कुछ खास अंदाजा नहीं लग रहा है, कितना फायदा मिलेगा नए कानूनों से?
ऐसी स्थिति में अगर किसान केंद्रीय सत्ता पक्ष से नाराज है तो विपक्ष खेमें के लोगों की भी जिम्मेदारी बनती है कि कोरोना के मद्देनजर किसानों को समझाए। पंजाब की कांग्रेस सरकार की तरफ से, या दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार की तरफ से कोई भी ठोस पहल इस दिशा में नहीं की गई। जबकि सियासी लाभ लेने की जुगत में सब लगे हैं।
मतलब सियासत में हर मुद्दा महत्वपूर्ण है। उनसे लाभ लेना भी गलत नहीं। लेकिन इन सब के बीच यदि देश की आम जनता से जुड़ी मूल समस्या लंबे समय तक नजरअंदाज कर दी जाए तो अमेरिका जैसी विस्फोटक स्थिति बन सकती है। सबसे खास बात है कि इसकी जिम्मेदारी हर उस शख्स से जुड़ जाती है जो देश की सियासत का हिस्सा है, पक्ष हो या विपक्ष। लोकतंत्र में इस सामूहिक उत्तरदायित्व से इंकार नहीं किया जा सकता।
अमेरिका के मौजूदा सियासी हालात के लिए पीछे सबसे बड़ी समस्या चीन की आर्थिक दखल है, उसका बढ़ता आर्थिक सामर्थ्य है। दरअसल चीन एक सधी रणनीति के तहत अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर निरंतर चोट कर रहा है। जानकार बताते हैं कि अमेरिका की बड़ी-बड़ी कंपनियां अपना मैन्यूफैक्चरिंग बेस चीन में शिफ्ट करती जा रही हैं। चीन की सरकार कई तरीके के प्रलोभन, सुविधा और यहां तक कि साजिश के तहत उन्हें अपने यहां प्लांट लगाने के लिए बाध्य कर दे रही है। जिसका बहुत बुरा प्रभाव अमेरिका के आम लोगों पर पड़ रहा है। कारखाने बंद हो रहे हैं, बेराजगारी तेजी से पैर पसार ही रही ही थी कि कोरोना ने अमेरिकी अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी। हालांकि कोरोना के पीछे भी चीन की ही साजिश मानी जा रही है।
इन विषम आर्थिक व सियासी परिस्थितियों में ही अमेरिका की सियासत में ट्रंप की एंट्री हुई। ट्रंप का मौजूदा सियासी मर्यादा से इतर जाकर चीन को बुरा भला कहना, और तो और खुले रूप से मूल अमेरिकियों के पक्ष में बोलना लोगों को भा गया। रिपब्लिकन पार्टी भी इस झांसे में आ गई और एक रियलिटी शो से स्टार बने, बड़े व्यवसायी ट्रंप देश के राष्ट्रपति उम्मीदवार बना दिए गए। जीत भी गए। एक गैर सियासी आदमी को देश की कमान सौंपने की गलती रिपब्लिकन पार्टी को जब तक समझ आई, तब तक देर हो चुकी थी। इसका बहुत बुरा एहसास पार्टी को अभी चुनाव में अपने पारंपरिक बेस वाले क्षेत्र गंवा कर हुआ।
जाहिर है अपनी सीमित सियासी और प्रशासनिक समझ की वजह से ट्रंप चीन से जुड़ी उस बड़ी और उलझी समस्या को सुलझा न सके। विपक्ष भी लगातार ट्रंप से ही उलझता दिखा। समस्या बद से बदतर होती चली गई। लेकिन देश की लाचार आम जनता समझ नहीं पाती कि केवल भावनात्मक दोहन से क्षणिक सियासी लाभ तो मिल जाता है, समस्या का ठोस निदान नहीं होता। नतीजा सबके सामने है, दुनिया का सबसे समृद्ध लोकतंत्र लड़खड़ाता नजर आया। और अमेरिका क्या पूरी दुनिया हैरान परेशान देखती रह गई।