आजाद भारत में दिल्ली
- साल 1947 में आजादी के बाद से साल 1950 में संविधान लागू होने के तुरंत बाद तक अंग्रेजों द्वारा स्थापित मुख्य आयुक्त वाली व्यवस्था जारी रही। दिल्ली भारत सरकार के सीधे प्रशासन में बनी रही।
- संविधान सभा में चिंता जाहिर की गई कि दिल्ली के लोगों को आजाद भारत की लोकतांत्रिक सरकार में उचित स्थान कैसे दिया जाए।
- इसी उद्देश्य से डॉ. बी. पट्टाभि सीतारमैया की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गई। जो मुख्य आयुक्त वाले प्रदेशों में प्रशासनिक संरचना के लिए अपेक्षित संवैधानिक परिवर्तनों का अध्ययन करे।
- समिति इस विचार के साथ आगे बढ़ रही थी कि महानगर वाले राज्य के लोगों को भी सबसे छोटे गांवों में रहने वाले देश के बाकी लोगों की तरह से ही स्वराज का सुख मिल सके।
- समिति की सिफारिशें जो सामने आईं-
- प्रांत को राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त उपराज्यपाल के तहत काम करना चाहिए।
- उपराज्यपाल की मदद और सलाह के लिए मुख्यमंत्री के नेतृत्व में मंत्रिमंडल होना चाहिए।
- मंत्रिमंडल को राज्य विधानसभा के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए।
- उपराज्यपाल और मंत्रिमंडल के विचार में भिन्नता होने की स्थिति में मामले को राष्ट्रपति के पास भेजना चाहिए, जिनका निर्णय अंतिम होगा।
- राष्ट्रपति की अनुमति के बिना मंत्रियों की संख्या तीन से ज्यादा नहीं होनी चाहिए।
- दिल्ली राज्य में पचास से अधिक निर्वाचित विधायक नहीं होने चाहिए। जो अन्य राज्यों के विधायकों की तरह इन विषयों को छोड़कर काम कर सकते हैं –
- प्रांतीय सूची में शामिल विषयों के मामले में भी केंद्रीय संसद को कानून बनाने का समवर्ती अधिकार होना चाहिए।
- प्रांतीय विधानसभा द्वारा सभी कानूनों को राष्ट्रपति की सहमति की जरूरत होगी।
- प्रांतीय विधानसभा द्वारा वोट किए गए बजट के प्रभावी होने से पहले राष्ट्रपति की अनुमति जरूरी होगी।
- केन्द्र पर राज्य के सुशासन और उसे ऋण देने का विशेष उत्तरदायित्व होगा।
- दिल्ली के छोटे क्षेत्र और सीमित संसाधनों के मद्देनजर प्रमुख राज्यों की तरह प्रशासन का स्तर बनाए रखने के लिए केन्द्रीय सहायता की जरूरत बनी रहेगी।