हवा की शुद्धता का बिगड़ता स्तर दिल्ली वालों की सेहत बिगाड़ रहा है। लोगों में इस समस्या को लेकर बहुत ज्यादा नाराजगी है। सबसे बड़ा सवाल यही उठता है कि इसके लिए जिम्मेदार कौन है, केंद्र सरकार या दिल्ली सरकार?
इस साल भी नींद तो दोनों सरकारों की खुली लेकिन तब जब पराली की हवा ने दिल्ली को बंधक बना लिया। हालांकि केजरीवाल सरकार ने तत्परता दिखाई और पूसा इंस्टीच्यूट की बॉयो डिकंपोजर के इस्तेमाल की मुफ्त व्यवस्था दिल्ली के सभी किसानों के लिए करवाई। जिससे कुछ दिनों में पराली खेत में भी खाद में तब्दील हो जाती है। राज्य सरकार के इस कदम से कुछ तो राहत मिली।
चलिए ये तो रही दिल्ली के किसानों को नियंत्रित करने की बात, लेकिन दिल्ली से सटे अन्य राज्यों के किसानों को कैसे नियंत्रित किया जा सकता है। यह काम तो केंद्र सरकार ही कर सकती है। अब जरा केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय के निराशाजनक कार्यशैली पर नजर डालते हैं। सबसे पहले तो केंद्रीय पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर इसी उलझन में दिखे कि पराली से दिल्ली को नुकसान हो कितना रहा है? कुछ दिनों तक चार प्रतिशत या चालीस प्रतिशत का विवाद चला। ज्यादा फजीहत होते दिखी तो केंद्र सरकार ने एयर क्वालिटी कमीशन के गठन की घोषणा कर दी। जिसके पास पूरे अधिकार दिए गए ताकि दिल्ली के आस पास के क्षेत्रों में प्रदूषण को नियंत्रित करने में कोई परेशानी नहीं आए। कमीशन सभी पड़ोसी राज्यों के सीएम को आदेश दे सकती है। राज्यों और केंद्र के पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड को भी आदेश जारी कर सकती है। दोषी पाए जाने पर 5 साल तक की जेल और एक करोड़ तक का जुर्माना लगा सकती है।
दिल्ली के पूर्व सचिव एमएम कुट्टी चेयरमैन बनाए गए। आईआईटी दिल्ली के मुकेश खरे और इंडियन मेटेरोलॉजिकल विभाग के पूर्व डायरेक्टर रमेश केजे इस वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग के फुल टाइम टेक्नीकल मेंबर बनाए गए।
कमीशन की घोषणा को खूब मीडिया कवरेज मिला। ऐसा संदेश दिया गया मानो केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने सब ठीक कर दिया। बकायदा सुप्रीम कोर्ट में भी केंद्र सरकार ने इस कमीशन का हवाला दिया कि दिल्ली को अब प्रदूषण की समस्या से निजात मिलनी तय है।
लेकिन दिल्ली की हवा क्या ठीक होगी कमीशन की ही हवा निकल गई, जब दिल्ली विधानसभा के एनवायरमेंट कमिटी की चेयरपर्सन ने पराली जलाने को लेकर पड़ोसी राज्यों के सीएम के लापरवाह रवैए पर सख्ती दिखाने के लिए कमीशन को पत्र लिखा। लेकिन पत्र को पते पर पहुचाया न जा सका।
दरअसल पत्र लेकर जब कर्मचारी केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय पहुंचा और कमीशन के दफ्तर का पता पूछा तो बताया कि अभी तक कोई ऑफिस ही नहीं बना है, कमरा तक कमीशन के लिए आवंटित नहीं किया गया है। यहां तक कि कोई एक आदमी नहीं मिला जो इस चिट्ठी को रिसीव ही कर ले। और तो और किसी भी तरह से कमीशन के चेयरमैन से मिलने का समय तक नहीं लिया जा सका।
जानकारी यही मिली कि कभी कभी ही चेयरमैन आते हैं। जब भी आते हैं तो कॉन्फ्रेंस रूम में ही बैठ जाते हैं।
अब कोई तो दिल्ली को समझाए कि एक तो देश के पर्यावरण मंत्री के पास टाइम नहीं, और भी मंत्रालयों का बोझ है उन पर। एयर क्वालिटी कमीशन तो बना, फुल टाइम चेयरमैन और अन्य सदस्य भी नियुक्त कर दिए गए। लेकिन बिना फुल टाइम बैठे इतने गंभीर मसले पर काम होगा कैसे?
सरकारें समझने को तैयार नहीं कि समस्या सांसों की है। इससे गंभीर बात कुछ और हो ही नहीं सकती। लेटलतीफी जानलेवा है। लेकिन बावजूद इसके इतनी लापरवाही हैरान करती है। शायद वे मान बैठे हैं कि इसका जवाब देने के लिए जनता को और चार-पांच साल इंतजार करना ही पड़ेगा।