बिहार में चुनाव है। बार बार बस यही विचार आ रहा है कि बिहार की सियासत में भी दिल्ली की तरह कोई नया प्रयोग हो जाता तो कितना अच्छा होता। उब सी हो गई है। पहली बार है जब कोई उत्साह ही नहीं जग रहा है। बिहार चुनाव में मन रम सा जाता था। लेकिन इस बार कुछ भी ऐसा नहीं, जो आकर्षित कर रहा है। वही पुरानी घिसी पिटी बातें। पुष्पम प्रिया के प्लूरल्स ने एक बारगी ध्यान खींचा। उसके बारे में जानकारी ली। काफी सफल कैरियर रहा है पुष्पम प्रिया का। बिहार में बदलाव की बात कर रही है। बहुत अच्छी बात है। लेकिन कुछ ऐसा प्रभावित करने जैसा नहीं दिखा अब तक। विकास के जिस स्तर पर बिहार को ले जाने की बात करती हैं, अव्यवहारिक सी लगती है। दरभंगा में उनके गांव की तस्वीर निराश करती है। अच्छा होता पहले वहां एक मॉडल देकर आगे बढ़तीं।
दिल्ली में अरविंद केजरीवाल ने जिस तरह से कांग्रेस और बीजेपी का वर्चस्व तोड़ दिया। उसे समझना होगा। बहुत ईमानदारी से अरविंद लोगों का विश्वास हासिल करने में जुटे रहे। तमाम तरह की मुश्किलें सामने आई। लेकिन अडिग रहे। अरविंद के पास के लोग कहते थे कि वे बहुत जिद्दी हैं। उस समय तो अच्छा नहीं लगता था, लेकिन आज समझ में आता है कि उसी जिद ने उन्हें अपनी बात पर कायम रहने की ताकत दी। गाली सुनी, पीटे भी, गलती भी की, लेकिन फिर माफी मांगी और आगे बढ़े। यह सब दिल्ली की जनता ने देखा महसूस किया। आज उसी की बदौलत वे लोगों के दिलों में अपनी मजबूत जगह बनाए बैठे हैं। उनकी सियासत के केंद्र में दिल्ली की आम जनता का हित झलकता है। लाख बुराई निकाली जा सकती है उनकी कार्यशैली में, लेकिन एक बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि आम आदमी पार्टी की सियासत जनता को सीधा लाभ पहुचाने की दिशा में काम करती दिखती है। शिक्षा हो, स्वास्थ हो, उसके पैरामीटर पर बहस हो सकती है, लेकिन मंशा पर प्रश्नचिन्ह अभी तक तो नहीं लगा पाया विपक्ष। देश में सियासत को नई दिशा देने में सफल दिखती है आम आदमी पार्टी। कहां तक, कब तक ऐसा चलेगा, ये बाद की बात है।
काश की बिहार में भी कुछ ऐसा संभव हो सकता, कुछ सालों के लिए ही सही। पप्पू यादव ने पिछले दिनों थोड़ी आस जगाई थी। लेकिन ठीक चुनाव के मौके पर जिस तरह की सांठ-गांठ में वे लग गए, निराश करने वाला रहा।
नीतीश कुमार को देखता हूं तो शीला दीक्षित की याद आ जाती है। आज दिल्ली की जो शक्ल दिखती है उसमें शीला दीक्षित का चेहरा साफ झलकता है। चमचमाती सड़कें, फ्लाइओवर, लाल बत्ती मुक्त चौराहे, हरियाली, सीएनजी का महाप्रयोग और भी तमाम तरह की चीजें हैं। ब्यूरोक्रेसी को हांकने का हुनर अरविंद केजरीवाल को छोड़िए बीजेपी वाले आज तक नहीं सीख पाए। सब उन्होंने किया लेकिन उनकी विरासत संभाल न सकी कांग्रेस। केंद्र के करप्शन की काली स्याही ने सब काला कर दिया। वक्त रहते दिल्ली में उनके बाद एक चेहरा तक तैयार नहीं कर सकी पार्टी। जिसका सीधा लाभ अरविंद केजरीवाल को मिला।
कमोबेश यही स्थिति नीतीश कुमार की है। अच्छा काम किया है। लेकिन इसके आगे की सोच उनके भाषणों में नहीं दिखती है। अभी अभी लॉकडाउन में देश भर में बिहारी मजदूरों की बदहाली की तस्वीरों ने जो मन पर जख्म दिए, ताजा हैं। सूरत में पीट रहे थे, मुंबई में पीट रहे थे, पंजाब से भगाए जा रहे थे, दिल्ली से भूखे पेट भागे जा रहे थे। सब नीतीश के चेहरे पर, उनकी बातों पर हावी हो जाता है। केंद्र सरकार के साथ इतनी अच्छी दोस्ती, फिर भी कुछ बेहतर नहीं कर पाए। आपसे बेहतर तो तेलंगाना वाले रहे। केंद्र से कोई दोस्ती तक नहीं फिर भी जोड़-तोड़ करके मजदूरों के लिए सबसे पहली ट्रेन चलवा दी। रेलमंत्री जब तक समझते रेल मजदूरों को लेकर निकल पड़ी। बाद में पता चला कि एक बिहारी ब्यूरोक्रेट की ही बुद्धि थी।
खैर, चुनावी प्रचार में बातें भी वही घिसी पिटी, जंगल राज का डर दिखाना। लड़कियों को साईकिल, शराब बंदी, स्वयं सहायता ग्रुप जैसी पुरानी योजनाओं की याद दिलाना। कुछ क्रांतिकारी न हो तो पर्यावरण और पीने के पानी की बात तो आज की तारीख में देश के राजनेताओं को शर्म से जनता के बीच करनी भी नहीं चाहिए।
क्या इसके आगे कुछ और नहीं हो सकता है बिहार में? आप इंजीनियर हैं बाढ़ का ठोस समाधान क्यों नहीं निकाल पाए आज तक? पटना कैसे पानी में डूबने लगा है अब? स्वास्थ्य व्यवस्था की नंगई तो कोरोना काल में सारी दुनिया ने देखा। आम आदमी की रहने दीजिए, राजधानी में एक आईएएस लेवल का आदमी रात भर अस्पताल के बाहर सड़क किनारे तड़प तड़प कर कैसे मर गया? लेकिन दबदबा ही कुछ ऐसा है साहब का कि कोई अंदर वाला क्या, बाहर वाला भी नहीं पूछ पाता है।
राजद का भी हाल बुरा लगता है। इतने बड़े सामाजिक क्रांति के जनक रहे लालू प्रसाद यादव की सारी की सारी सियासी पूंजी थामे खड़ा बस उनका परिवार, मन दुख से भर देता है। क्या इतनी सी धरोहर रह गई इतने बड़े जननेता की। जिस पिछड़े तबके को आवाज देने का काम जीवन भर किया उस आदमी ने, वे सारे के सारे लोग कहां चले गए। उस स्तर पर सियासी सन्नाटा क्यों है? परिवार के बाहर का कोई एक आदमी नहीं दिखता, जो उनकी अच्छी बातों को आज जनता के सामने मजबूती तो रहने दीजिए, रख भी सके। ऐसा नहीं है कि लालू के राज में सब बुरा ही हो रहा था। और ऐसा भी नहीं कि जंगलराज के पहले बिहार में मंगलराज था। जिसे जब मौका मिला सबने बिहार में जमकर जातिवाद फैलाया, सरकारी सुविधाओं की लूट मचाई। नीतीश ने काफी संभाला, लेकिन दामन तो उनका भी बेदाग नहीं है।
बहुत कुछ लिखा जा सकता है। बात वही दिल में आती है। काश की बिहार में भी बड़ा बदलाव आए। दिल्ली जैसा कुछ चमत्कार हो जाए। जाति नहीं, जज्बातों का जंजाल नहीं…स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार बस तीन बातों पर वोट करे बिहार।