बिहार चुनाव की पास खिसकती तारीखें धड़कनें बढ़ा रही हैं। ओपिनियन पोल के नतीजों की चर्चा ने देश के सियासी तापमान को और अधिक बढ़ा दिया है। संदेह नहीं कि बिहार चुनाव के नतीजे देश की सियासी फिजा पर तगड़ा प्रभाव डालते हैं। माथा-पच्ची तेज हो गई है। पोल के अनुसार एनडीए की सरकार बनते देख कर भी लोग तेजस्वी को सीएम बनाने का मोह नहीं छोड़ पा रहे हैं। अजीब अजीब तरह के सियासी समीकरण पर दिमाग लगाने लगी है पब्लिक। कोई कह रहा था कि तेजस्वी और बीजेपी में डील हो गई है। जब जदयू बीजेपी को छोड़ सकती है तो बीजेपी ने कौन सी कसम ले रखी है सातो जनम साथ निभाने की…बस चुनाव नतीजों का इंतजार है..इधर बिहार में तेजस्वी सीएम, बीजेपी का समर्थन और उधर लालू जेल से बाहर। पूरा पैकेज डील हो गया है। नामुमकिन सी तो लगती है बात..लेकिन सियासत में तो कुछ भी मुमकिन है..बात बिहार चुनाव की हो तो यहां नामुमकिन सी फिल्म का ट्रेलर जनता पिछले चुनाव में देख ही चुकी है।
खैर, बात सबसे बड़ी जो समझ आ रही है..या जो ओपिनियन पोल समझा रहे हैं कि तेजस्वी का तेज नीतीश कुमार पर हावी होने में बस एक पंच भर का रह गया है। यानी 27 में 5 जुड़ा नहीं कि तेजस्वी सीएम। यूं तो यह बात सारे ओपिनियन पोल में मानी गई है कि बिहार के लोगों के बीच सीएम के रूप में तेजस्वी की स्वीकार्यत बढ़ी है। आजतक और सीएसडीएस का ओपिनियन पोल तो 31 अंक नीतीश को दे रहा है तो तेजस्वी को 27 अंक। वोट शेयर में भी करीब इतना ही फर्क रह गया है। अगर स्थिति ऐसी बन रही है तो एनडीए को सतर्कता से कदम बढ़ाने की जरूरत है। वोटिंग के पहले के ये पांच दिन भारी हैं नीतीश कुमार पर, राजद का एक बड़ा सियासी पंच पड़ा नहीं कि सीएम कुर्सी उनके खेमें में पहुंच सकती है।
ओपिनियन पोल की पहुंच छोटे-बड़े शहरों या फिर बहुत से बहुत प्रमुख ग्रामीण इलाकों तक ही सीमित होती है। ऐसे में इस बार बिहार की सियासी नब्ज टटोलना जरा मुश्किल ही लगता है, विशेषकर सीटों की संख्या को लेकर। नहीं भूलना चाहिए कि लॉकडाउन की मार झेल कर बिहार के गांव पहुंचे मजदूर अभी भी बड़ी संख्या में वहीं अपने गांवों में ही फंसे हैं। निराशा हताशा जब यहां दिल्ली जैसे शहरों के लोग महसूस कर रहे हैं तो उन ग्रामीणों की मनोदशा का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। उस पर से त्योहारों का मौसम शुरू है..लोगों के हाथ खाली हैं। ठीक इसी समय..यही मौका हुआ करता था जब साल भर कमाई कर बिहारी कामगार बड़ी संख्या में पैसे लेकर अपने गांव पहुंचा करता था। छठ तक वही रहता और फिर वापस शहर की राह पकड़ता था।
चुनावी मौसम में इस शून्यता को कैसे नजरअंदाज किया जा सकता है? चाहे केंद्र की सरकार हो या फिर राज्य की..दोनों जगहों पर एनडीए बैठी रही है। सरकारें लाख दावा करें लेकिन इस देश का..विशेषकर बिहार का सरकारी सिस्टम कैसे काम करता है किसी से नहीं छुपा। नोटबंदी, जीएसटी और फिर कोरोना महामारी की मार…साल सोलह के बाद से सब ने बारी बारी से झकझोरा है देश को। इस मानसिक और आर्थिक हताशा से एनडीए बिहार चुनाव में कैसे निपटती है..देश नजरें टिकाए बैठा है। सब सांस रोके नतीजों का इंतजार कर रहे हैं।
अभी तक तो जो संकेत मिल रहे हैं..उनकी माने तो राम नहीं बचाने वाले..कृष्ण को टाइम लगेगा…चीन और पाकिस्तान से ज्यादा उम्मीद करना बेकार है। लॉकडाउन का पीरियड माइनस कर दें तो नीतीश ने अच्छा काम किया है अब तक, लेकिन आगे का ठोस प्लान देने में नाकाम दिखते हैं। झूठ सच जो भी कह लें..नई उम्मीदें जगाने में तो तेजस्वी ही तेजी से कदम आगे बढ़ाते दिख रहे हैं। पांच दिन ही बचे हैं वोटिंग के..चहेते सीएम के आंकड़ों में भी पांच का ही फेर बचा है..बस एक दमदार पंच..दे सकता है देश की सियासत को बड़ा संदेश..।