दिल्ली के डिप्टी सीएम और शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया ने अतिविशिष्ट परिस्थितियों में प्रेस कॉन्फेंस बुला कर दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेजों में सैलरी के मसले पर बड़ा खुलासा करने की कोशिश की। अतिविशिष्ट इसलिए कि कोरोना संक्रमित सिसोदिया जी को अभी आराम की सख्त जरूरत है, लेकिन कुछ बात तो है जो उन्हें बैचेन कर रही है।
उन्होंने बताया कि एक तरफ तो कॉलेजों के पास एकाउंट में पैसे हैं, उनके पास बड़ी रकम की एफडी है लेकिन फिर भी प्रोफेसर्स और कर्मचारियों को सैलरी नहीं दी जा रही है। इसे क्रिमिनल ऑफेंस तक करार दिया। कॉलेज सैलरी नहीं दे रहे हैं, लेकिन वहीं 25-25 लाख के डोनेशन दे रहे हैं। उन्होंने बकायदा आंकड़ों के हवाले से बताया कि किस तरह साल 2014 के बाद से लगातार कॉलेजों के ग्रांट में बढ़ोतरी की गई है। केशव महाविद्यालय को साल 2014-15 में जहां 11 करोड़ रुपए दिए गए, साल 2019-20 में ये रकम बढ़ कर 28 करोड़ के करीब पहुंच गई। इसी तरह भगिनी निवेदिता कॉलेज का ग्रांट साल 2014-15 में साढ़े आठ करोड़ से बढ़कर साल 2019-20 में 18 करोड़ तक जा पहुंचा।
डिप्टी सीएम ने यह भी स्पष्ट किया कि दिल्ली के कुछ कॉलेजों में सरकार का जो पैटर्न ऑफ ग्रांट है वो कहता है कि कॉलेज के पास जो पैसा फीस या अन्य तरीके से आता है और जो पैसा कॉलेज खर्च करता है उसमें जो कमी आती है उसकी भरपाई बस दिल्ली सरकार करती है। इसी में अनियमितता की आशंका के बाद दिल्ली सरकार ने ऑडिट करवाना शुरू किया है। जिसके बाद जो प्रारंभिक आंकड़े और फैक्ट्स सामने आ रहे हैं उसी आधार पर उन्होंने सारी बात बताई।
लेकिन जब एक सवाल डिप्टी सीएम के पास आया कि साल 2020-21 के लिए कितना फंड दिल्ली सरकार ने अब तक रिलीज किया है तो वे नहीं बता पाए। दूसरा सवाल पूछा गया कि किन कॉलेजों ने मोटी रकम डोनेशन में दिए हैं, शिक्षा मंत्री नहीं बता पाए। यहां उनकी तैयारी अधूरी दिखी।
चलिए ये तो रहा इस कोरोना काल में प्रतिष्ठित डीयू के कुछ कॉलेजों में सैलरी नहीं दिए जाने को लेकर दिल्ली सरकार का पक्ष। लेकिन अब इस सारे विवाद के दूसरे पक्ष की बात करते हैं। जानकार जो बता रहे हैं उसके अनुसार ये सारी कवायद दरअसल डीयू के दिल्ली सरकार फंडेड कॉलेजों की गवर्निंग बॉडी में सियासी वर्चस्व को लेकर है। तमाम कोशिशों के बावजूद इन कॉलेजों में अपनी पैठ बनाने में नाकाम रही आम आदमी पार्टी अब ऑडिटर्स का सहारा ले रही है। कहा तो यही जा रहा है कि आप पार्टी के पास उस कैलिबर के प्रत्याशी ही नहीं है कि वे गवर्निंग बॉडी के चेयरमैन बनने के बाद भी कुछ बदलाव अपने हिसाब से कर सकें। विश्वविद्यालय की पॉलिटिक्स दिल्ली की आम पॉलिटिक्स से बिल्कुल अलग है। अभी तक आप की पर्फारमेंस तो यही बताती है कि यहां आपको नियम बदलने की जरूरत है, कैंडिडेट के चयन पर काम करने की जरूरत है, न कि सैलरी रोक कर इस संकट काल में सबको सता कर सियासत साधने की। कहा तो यहां तक जा रहा है कि कायदे से कॉलेज के कुल बजट का जो भी प्रतिशत निर्धारित है, चाहे वो 5 प्रतिशत हो या फिर 100 प्रतिशत, दिल्ली सरकार उतने पैसे देने को बाध्य है। रही बात खर्च और कमाई के अंतर की, इसे कोई भी आसानी से समझ सकता है कि सरकारी कॉलेजों की फीस के भरोसे सैलरी व अन्य खर्चों की भरपाई कतई संभव नही है।
सीधी बात यह है कि इस महामारी के दौर में सियासत का यह स्वरूप समझ से परे है। एमसीडी की तरह कॉलेजों में भ्रष्टाचार से धन उगाहने की कोई ठोस व्यवस्था तो है नहीं। विशेषकर शिक्षकों की बात करें, तो कोचिंग वगैरह लॉकडाउन में अभी तक बंद ही है। ऐसे में उनका घर चले तो चले कैसे? इन परिस्थितियों में सैलरी रोकना कैसे जायज ठहराया जा सकता है? माना कि कॉलेज प्रबंधन कुछ उलेट फेर कर सकता है, लेकिन कॉलेज में पढ़ने पढ़ाने वाले और काम करने वाले और उनके परिवार का क्या कसूर? दिल्ली में आप की सरकार है और दिल्ली विश्वविद्यालय में आपकी पैठ नहीं बना पाने के जिम्मेदार क्या आपने पूरी तरह इन्हें ही मान लिया हैं? आपकी अपनी तैयारी में कोई कमी क्यों नहीं हो सकती?
सोचना यह भी होगा कि कही ये मुफ्त वाली सियासत के साइड इफेक्ट्स तो नहीं, जो इस संकट की घड़ी में आपको सैलरी वाली सियासत करने के लिए बाध्य कर रहे हैं..?