समझ में नहीं आ रहा कि स्थापित संवैधानिक व्यवस्था के तहत सरकार कानून बनाए जा रही है, लेकिन समाज के जिस तबके के लिए बना रही है वो तबका उसे मान ही नहीं रहा है। या कहें कि सरकार उस नियम कानून का पालन समाज के उस वर्ग विशेष से करवा ही नहीं पा रही है। ये तो बहुत ही चिंताजनक स्थिति है। एक तरह से देखा जाए तो ये पूरी संवैधानिक व्यवस्था को हल्का कर देने जैसा है। सारे सांसद देश भर से चुनकर आते हैं। जनता के प्रतिनिधि होते हैं। जनता ही उन्हें चुनती है। सब जानते समझते हुए भी उनके द्वारा लिए निर्णय को अमान्य करार देना किसी भी तरह से लोकतंत्र की सेहत के लिए अच्छा नहीं माना जा सकता।
केंद्र में बीजेपी की सरकार है। बीजेपी देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी है। संसद में उसके सबसे ज्यादा सांसद है। मतलब देश की जनता ने बीजेपी को देश चलाने की जिम्मा दिया है। आज की तारीख में यदि कुछ भी बुरा या भला होता है तो उसके लिए केंद्र की सरकार जिम्मेदार है। शासन की जो व्यवस्था बनाई गई है उसके अनुसार यदि सरकार के किसी निर्णय के गलत परिणाम आते हैं तो समय के साथ सरकार की लोकप्रियता कम होगी, पार्टी अपना जनाधार खो देगी और सत्ता से बाहर हो जाएगी। इसलिए एक तरह से आवश्यक है कि सरकार को उतना समय दिया जाए जिस दौरान उसके फैसले का लिटमस टेस्ट हो सके। सही गलत का पता चल सके। लेकिन उसके पहले ही समाज का वो हिस्सा जिसके लिए संसद ने कानून बनाए हैं वो अड़ जाए। नियम कानून को माने ही ना तो ऐसे में सरकार के पास के पास क्या ऑप्शन है, उसका व्यवहार उस तबके के साथ कैसा होना चाहिए? आज की तारीख में यही सबसे बड़ा सवाल देश के सामने है।
सबसे पहले बात किसान आंदोलन की। सरकार ने पूरी संवैधानिक प्रक्रिया का पालन करते हुए कृषि सेक्टर की बेहतरी के लिए तीन कानून बनाए। हो सकता है कि ये कानून अच्छे ना हों, इसमें कुछ खामियां हों। लेकिन उसके लागू होने से पहले ही बिना उसके कमजोर पक्षों पर चर्चा किए, तर्क संगत कारण बताए बिना ही बस बुरे की आशंका के साथ उन कानूनों को खारिज करने की मांग के साथ आंदोलन चलाना, देश की राजधानी को बंधक बना लेना, करोड़ों लोगों के जीवन की मुश्किलें बढ़ा देना, कहां तक उचित है? क्या उन लोगों के लिए लोकतंत्र के नियम नहीं लागू होते जो उस महत्वपूर्ण सड़क का इस्तेमाल करते हैं। जिसे कुछ किसानों ने पिछले सात महीने से बंधक बनाया हुआ है। दिल्ली एनसीआर में रहने वाले लोगों के लिए समय से कीमती कुछ नहीं। उनका समय नष्ट करने से बड़ा अपराध भी कोई नहीं। बावजूद इसके, इस दिशा में ना तो सरकार कुछ करती दिखती है। ना ही देश की न्याय व्यवस्था। कई लोग कानून की शरण में जा चुके हैं, लेकिन कोई ठोस परिणाम नहीं निकल सका। ऐसा लगता है कि सभी जनता के भड़कने का इंतजार कर रहे हैं। जनता कानून अपने हाथ में लेकर इन किसानों को खदेड़ दे।
समझ में नहीं आ रहा कि केंद्र सरकार जिन करोड़ों किसानों के एकाउंट में इस कोरोना क्राइसिस के समय में देश का कीमती करोड़ों रुपया ट्रांसफर कर रही है, वो किसान ही या कोई और, क्योंकि इन नए कृषि कानूनों पर उनका मत तो सरकार सामने ला ही नहीं पा रही है। अगर वो किसान ही हैं और सरकार का दिया पैसा वापस नहीं कर रहे हैं तो फिर क्यों नहीं मान लिया जाता कि वो सरकार के निर्णय के साथ हैं? फिर दिल्ली को बंधक बनाने वाले इन किसानों के साथ सख्ती नहीं करने के पीछे सरकार की मजबूरी है या कमजोरी?
कम से कम ट्विटर वाले मामले में तो सरकार की कमजोरी ही सामने आ रही है। ट्विटर सरकार के बनाए नियम को मानने में आनाकानी कर रहा है। खुलेआम कर रहा है। तमाम सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स का रवैया भी कमोवेश ऐसा ही रहा है। संसद के बनाए नियमों का पालन करने से कतराते दिख रहे हैं सभी। हद तो तब हो गई जब देश के कानून मंत्री का ही एकाउंट अमेरिकी नियमों का हवाला देते हुए ट्विटर ने बंद कर दिया। देश समझ नहीं पा रहा कि सरकार क्यों लाचार दिख रही? देश की सत्ता का सम्मान रखते हुए सरकार के सारे लोग, बीजेपी के सारे नेता और कार्यकर्ता, तमाम मंत्रालय और सरकारी विभाग, एक साथ ट्विटर से हट क्यों नहीं जाते? अब तो ऑप्शन भी है।
थोड़ी सम्मानजनक स्थिति कश्मीर के मामले में देखने को मिली। धारा 370 हटाने को लेकर भले ही वहां के नेताओं में असंतोष हो, सरकार के बनाए नए नियमों को वो नहीं मान रहे, लेकिन सभी ने दिल्ली आकर सरकार से बात की, अपनी बात रखी। खुलकर अपने विरोध को देश के सामने रखा। लगा कि वहां के नेता संवैधानिक और लोकतांत्रिक व्यवस्था का सम्मान कर रहे हैं। उन्होंने धारा 370 की लड़ाई को कानूनी तरीके से लड़ने की बात कही।
कहना गलत नहीं होगा कि आंदोलनकारी किसानों, सोशल मीडिया कंपनियों से उलट कश्मीर के नेताओं ने दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की लाज रख ली, सरकार का लिहाज रख लिया।