कभी पगड़ी, कभी पजामा, तो कभी भगवा भरमा रही !
आंदोलन में कितना तत्व किसान था ये तो अब समय के साथ सामने आएगा। लेकिन बाकि जो कुछ भी था, जिसकी बुनियाद पर इस आंदोलन को खड़ा किया गया था, उसकी जीत का जश्न तो देश दुनिया में मनाया जा रहा है। क्योंकि उस आंदोलन की जीत हो गई। उसका काम खत्म हो गया। बकायदा अब कुछ ही दिनों में ये खबर भी देश को मिल ही जाएगी कि किस किस को कितनी धन राशि मिली, लाल किले पर सिख धर्म का झंडा फहराने वालों बॉर्डर के इधर वाले ही पंजाब के वीर सपूतों में से। उन्हें तो नया देश ही बनाना है उनकी तो बात ही क्या करनी। उन्हें पता है कि अब यहां इस देश में बगावत करने के लिए सिर पर कफन बांधने की भी जरूरत नहीं रह गई। समझते हैं कि सरकारें अपनी सियासत चमकाएगी कि देश की मर्यादा बचाएगी। देखते रहे हैं कि इस देश में प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की मौत पर भी सियासी नफा नुकसान का खेल कभी थमता नहीं। उन्होंने देखा है, बस एक सटीक सियासी दांव सब पाक साफ।
इतने बड़े, बेतहाशा बढ़ती आबादी वाले देश में असंतुष्टों की भरमार जो है। कहीं भी खड़े होकर बस लाइन खींच दीजिए। देश गया तेल लेने, नफरत वाले तेल की धार देखिए। भूल जाते हैं सब देश ने क्या दिया। फिर क्या अशिक्षा, बेरोजगारी, भुखमरी, सुस्त सिस्टम की लाचारी, सब छोड़ धर्म, जात, पात, पंथ, समाज में बंट जाते हैं।
और तो और निरंतर कोशिशें जारी रहती है कि और कितने खेमें और खांचें देश में बनाए जाएं। सूचना क्रांति क्या हुई, बड़ी बड़ी गौरव की बातें करने लगा है देश, इसे और तोड़ा और झुकाया जाए। मत सुनों कौन क्या कह रहा है, बस अपना अपना एजेंडा चलाया जाए। तय न कर पाए देश के हित अहित की बात आम नागरिक, जितना हो सके उसे उतना भरमाया जाए।
बड़े बड़े नाम, जिन्हें देश ने बड़ा किया, कहीं और होते तो पता नहीं क्या कर रहे होते, किस लायक होते, लेकिन बेहद निराश करते हुए सियासी हित के आगे देश हित नकारते दिख जाते हैं। अपनी बेतुकी दलीलों से देश का मान स्वाभिमान नकारते दिख जाते हैं।
चलिए अब बात हम अपनी करते हैं। क्योंकि हमें देश से प्यार है देश के मान स्वाभिमान का लिहाज है। लोकतंत्र के पावनपर्व, गणतंत्र दिवस के दिन ही गणतंत्र की बदहाली देख कर हमारी आंखे नम हैं, दिल भारी सा है। क्यों सब सियासी हो गया, जवाब अभी भी दिमाग तलाश रहा है। क्यों लाचार हो जा रही देश की खुफिया व्यवस्थाएं? मुकाबला विशेषकर कर जब अंदर बैठे दुश्मनों से हो। क्यों कभी पगड़ी, कभी पजामा तो कभी भगवा देख भरमा जा रहे हैं सब। राजधानी की सीमाओं पर इतने दिनों तक बैठ कर खालिस्तान का एजेंडा चलाने वालों पर व्यवस्था का मौन कितना घातक हो सकता है ये तो आज की तारीख में दिल्ली की सड़कों पर रौब से घुमने वाले, उन्ही सड़कों पर बुरी तरह दौड़ा दौड़ा कर पीटे गए देश की सबसे सशक्त और गौरवशाली दिल्ली पुलिस के जवान तो बता ही सकते हैं। वक्त रहते सभी संभल जाए तो बेहतर, सुरक्षा मामलों मे भी सियासी नफा नुकसान देखने की लत नेताओं तक ही रहने दे तो बेहतर।