दिल्ली चुनाव में ‘मध्यम वर्ग’ – चैप्टर 5

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राजनीतिक पार्टियों से मांग-2

चुनाव के चरम काल में इस बात की चर्चा ज्यादा से ज्यादा होनी चाहिए. ये हाई टाइम होता है जब आप अपनी बात नेताओं तक पहुंचा सकते हैं. समाज के मध्यम वर्ग का दायरा बहुत बड़ा होता है. तरह-तरह के काम करने वाले लोगों की समस्याएं भी अलग-अलग होती है. मगर काफी हद उनकी परेशानियां एक जैसी होती हैं. जिन्हें हमने समेटने की कोशिश की है.

  1. निजी स्कूलों की फीस रेगुलेट करने की व्यवस्था

    बच्चों की पढ़ाई से जुड़ी समस्याएं एक जैसी होती हैं. बच्चों की पढ़ाई का खर्चा एक मध्यम वर्गीय परिवार के बजट का बड़ा हिस्सा होता है. एक बच्चे पर काफी खर्चा होता है. आज की तारीख में दो बच्चों को थोड़े बेहतर प्राइवेट स्कूल में पढ़ाना बड़ी चुनौती बन चुका है. ऐसे में प्राइवेट स्कूल वालों की जरा सी भी अतिरिक्त मांग परेशानी बढ़ा देती है. पैरेन्टस से ज्यादा से ज्यादा पैसा निकालने के लिए स्कूल मैनेजमेंट कुछ न कुछ तिकड़म लगाता ही रहता है. कभी-कभी अचानक फीस बढ़ा देते हैं. कभी कुछ अतिरिक्त खर्चा जोड़ देते हैं. मिडिल क्लास के लिए बच्चों की पढ़ाई को स्थायित्व के साथ मैनेज करना मुश्किल हो गया है. ये बड़ी सिरदर्दी है. अगर सरकार इस स्कूल फीस को मॉनिटर करने या फिर फीस को लेकर कहीं कोई विवाद खड़ा हो तो उसे मैनेज करने के लिए अलग से कोई स्थाई व्यवस्था बना दे तो मिडिल क्लास पर बड़ी मेहरबानी होगी.

    2. सरकारी दफ्तरों से असभ्य कर्मचारी हटाए जाएं

    दिल्ली के कुछ सरकारी दफ्तर ऐसे हैं जहां के कर्मचारियों से बात करना बड़ी चुनौती है. आपको मानसिक रूप से तैयार होना पड़ता है. कोई भी, कभी भी आपका अपमान कर सकता है. जैसे आप जल बोर्ड के दफ्तर चले जाइए, अपनी समस्या वहां के कर्मचारियों के सामने रखिए. वो सुनने को तैयार ही नहीं होगा. वो आपको कुछ भी उल्टा जवाब दे सकता है. ऐसा लगेगा आप ही अपनी परेशानी के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार है. यही हाल एमसीडी का है. दिल्ली परिवहन विभाग का हाल भी बुरा है. जानकार बताते हैं कि वहां तो शीर्ष अधिकारियों के नीचे ज्यादातर उल्टे-सीधे तरीके से प्रोमोशन हासिल किए लोग काम कर रहे हैं. जिनसे बेहतर पब्लिक डिलिंग की उम्मीद की हीं नहीं जा सकती. कुल मिलाकर, ये आम बात है दिल्ली के सरकारी दफ्तरों में कोई सीधे, सरल तरीके से संवाद करने को तैयार ही नहीं दिखता.

    मैं यकीन के साथ कह सकता हूं..मध्यम वर्ग के बहुत सारे लोगों का अनुभव इस मामले बहुत अच्छा नहीं रहा होगा. ऐसे बदमिजाज कर्मचारी..जिनके खिलाफ अनुशासन या अवमानना का आरोप सही पाया जाता है, उन्हें तुरंत सेवा से बाहर किया जाना चाहिए.

    3. निजी सेक्टर कर्मचारियों के सैलरी विवाद में सहयोग

    ऐसा ही एक मुद्दा है निजी सेक्टर में कर्मचारियों की सैलरी का. ये बात हर किसी को पता है कि सरकारी सेक्टर की तुलना में निजी सेक्टर का दायरा बहुत ज्यादा है. बावजूद इसके कर्मचारियों की बेहतरी के लिहाज से सरकार की तरफ से मॉनिटरिंग की कोई व्यवस्था नहीं है. दिक्कत तब काफी बढ़ जाती है जब कोई संस्था अपने कर्मचारियो को सही समय पर सैलरी नही देती है. लेबर के लिए तो व्यवस्था है. लेकिन मिडिल लेवल पर काम करने वालों के लिए ये सिस्टम काम ही नहीं करता. आप सिर्फ कोर्ट जा सकते हैं. तंगी की स्थिति में कोर्ट-कचहरी के लिए आपको खर्चा अरेंज करना पड़ जाता है. इतना ही नहीं केंद्र और राज्य सरकारें भी बिजनेस मैन के साथ खड़ी दिखती हैं. सैलरी डिस्प्यूट के मामलों में अगर कोई अलग से व्यवस्था हो, जो जरा न्यूट्रल तरीके से मामलों को देखे और विशेषरूप मध्यम वर्ग को समाधान दे तो ये मिडिल क्लास के लिए बड़ी राहत देने वाला होगा.

    (आगे और भी…)

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