दिल्ली वाले ही नहीं कर्मचारी भी परेशान
दिल्ली के ट्रांसपोर्ट विभाग की कार्रवाई दिल्ली वालों पर कहर बरपा रही है। विभाग का रवैया अवैध और आपत्तिजनक है। जो मानवीय और लोकतांत्रिक मूल्यों पर तो बिल्कुल भी खड़ा नहीं उतरता। सूचना क्रांति के दौर में दिल्ली का ट्रांसपोर्ट विभाग लोगों को गाड़ी उठाने की पूर्व सूचना नहीं देता। बिना बताए घरों के बाहर से गाड़ियां उठाई जा रही हैं। आगे कोई सुनवाई नहीं। इसे विभाग के शीर्ष अधिकारियों का तानाशाही रवैया कहना बिल्कुल भी गलत नहीं होगा।
अब जो जानकारी सामने आ रही है उससे पता चलता है इससे विभाग के निचले स्तर के कर्मचारी भी खासे परेशान हैं। बिना किसी नोटिफिकेशन के उनसे अवैध तरीके से काम करवाया जा रहा है। सुबह-सुबह बस एक व्हाट्सएप मैसेज मोबाइल पर आता है जिसे फॉलो करने की बाध्यता रहती है। बताए गए इलाके में गाड़ियों को उठाने और धड़पकड़ की कार्रवाई करवाई जाती है। खासकर चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों के लिए ये बड़ी परेशानी का विषय है। सरकारी नियम के अनुसार उन्हें इस तरीके के काम करने का अधिकार ही नहीं है। वे चालान करने, नोटिस देने के लिए ऑथोराइज ही नहीं हैं। इस तरह के दस्तावेजों पर वे हस्ताक्षर नहीं कर सकते। परिस्थिति काफी बिगड़ जाती है जब कोई गाड़ी मालिक अकड़ जाए। आप एक ऐसी परिस्थिति में फंस जाते हैं जहां काम गलत है और सामना गुस्साई भीड़ से हो जाए। और तो और जब उनका सामना ऐसे लोगों से हो जाता है जिनसे विभाग के कर्मचारी पहले ही अवैध वसूली कर चुके होते हैं। वहां दूसरी बार पहुंचना नौकरी दांव पर लगाने जैसा होता है।
दिल्ली ट्रांसपोर्ट विभाग में हेड कॉन्सेबल के पद पर काम करने वाले हरिन्द्र सिंह बताते हैं कि विभाग में ज्यादातर कर्मचारी चतुर्थ श्रेणी के ही हैं। कागजी तौर पर उनकी पदोन्नति नहीं हुई है, सैलरी चतुर्थ श्रेणी के हिसाब से ही मिलती है। लेकिन काम ऊंचे स्तर के करवाए जाते हैं। बस कहने के लिए ऊंचे स्तर का टैग लगा दिया गया है। और फिर गलत तरीके से काम करवाए जाते हैं। अपना दर्द साझा करते हुए हरिन्द्र सिंह बताते हैं कि कायदे से उनकी पदोन्नति काफी पहले हो जानी चाहिए थी। उनकी सैलरी एक लाख से ज्यादा होनी चाहिए थी। लेकिन इस वक्त उन्हें 57 हजार रुपये के करीब ही मिलते हैं। कर्मचारियों की परेशानियों पर कोई भी सीनियर अधिकारी बात करने को राजी नहीं। ज्यादा दबाव डालने पर अधिकारी धमकाने लग जाते हैं। उन्हें गलत तरीके से फंसाने, नौकरी से निकालने तक की बात कहने लग जाते हैं।
अपने सम्मान और हक की लड़ाई को हेड कॉन्सेबल हरिन्द्र सिंह अब अगले स्तर पर ले जाने की तैयारी में हैं। सरकारी सिस्टम के तहत, कानूनी तरीके से इस अव्यवस्था से कैसे लड़ा जाए, तमाम ऑपशन पर काम कर रहे हैं। हरिन्द्र सिंह एक भ्रष्ट सरकारी व्यवस्था में एक ‘क्रांतिवीर’ की तरह लगते हैं जिनकी पहल से शायद दिल्ली ट्रांसपोर्ट विभाग का कायापलट हो सके। व्यवस्था में बड़ा और बेहतर बदलाव सुधार की उम्मीद जगाती है। शीर्ष अधिकारियों की तानाशाही पर अंकुश लगेगा, तब जाकर शायद आम दिल्ली वालों को भी राहत मिल सके।