निगम प्रशासन – मुर्दाबाद! हमारा मेयर – मुर्दाबाद! हमें हमारा – वेतन दो!
जैसे नारों की गूंज मुखर्जीनगर जोन के निगम कार्यालय परिसर में थमने का नाम ही नहीं ले रही। वेतन की बढ़ती परेशानी से निगम कर्मचारियों में आक्रोश बढ़ता ही जा रहा है। बार बार ऐसे हालात बन जा रहे हैं जब सैलरी की मांग को लेकर उन्हें सड़कों पर आना पड़ता है। एक दो महीने की सैलरी डाल देता है निगम प्रशासन फिर चुप्पी मार लेता है। सालों से ये सिलसिला चला आ रहा है। इस बार नॉर्थ एमसीडी के मेयर ने तो मना ही कर दिया है कि सैलरी नहीं दे सकते। सैलरी पर जारी सियासी घमासान चरम पर है। एक तरफ बीजेपी 13 हजार करोड़ रुपए की दिल्ली सरकार पर देनदारी की दुहाई दे रही है तो वही दूसरी तरफ आम आदमी पार्टी का सीधा आरोप है कि मौजूदा सैलरी संकट के लिए एमसीडी की भ्रष्ट कार्यशैली जिम्मेदार है।
क्या एमसीडी अपनी कार्यशैली में बदलाव के लिए तैयार है?
हड़ताल कर रहे एमसीडी के कर्मचारियों का कहना है कि वे दस घंटे काम करने के लिए तैयार हैं, बशर्ते सैलरी समय पर आए। जरूरत के सामान उपलब्ध हों। सही तरह से उपर से कमांड आए। जब दिखता है कि उपर से कंमाड ही गलत आ रहे हैं। प्राथमिकता के हिसाब से काम का निर्णय होता नहीं दिखता। तो कैसे बेहतर काम की उम्मीद की जा सकती है? साफ-सफाई और सैनिटाइजेशन के काम से संबंधित ढेर सारी महंगी गाड़ियां खरीद कर परिसर में लगा दी गई हैं। बताया जा रहा है कि केंद्र सरकार के फंड से ली गई हैं। जबकि उनकी उपयोगिता को लेकर कोई दिशा-निर्देश जारी नहीं किया गया। गाड़ियां खड़े खड़े खराब हो रही हैं। आर्थिक संकट के समय इन गाड़ियों की खरीद सवालिया निशान खड़े करती हैं।
रही बात भ्रष्टाचार की, जो साफ-साफ दिखता है, बात उसी की करते हैं। दिल्ली के कमोवेश हर इलाके में, सड़क किनारे रेहड़ी पटरी वालों की संख्या दिनों दिन बढ़ती ही जा रही है। सभी को पता है कि बिना निगम अधिकारियों या पार्षदों तक पैसा पहुंचे दिल्ली की किसी भी सड़क पर कोई रेहड़ी वाला बैठ ही नहीं सकता।
उसी तरह दिल्ली में मकानों का निर्माण निरंतर जारी है। अलग अलग इलाकों के अलग अलग रेट तय हैं। लेंटर के हिसाब से पैसा पहुंच ही रहा है। पूरी दिल्ली में किसी भी तरह के निजी निर्माण के नाम पर वसूली का धंधा कभी नहीं थमता। बताया तो यही जाता है कि जिसमें निर्धारित रूप से एमसीडी का हिस्सा पहुंच ही रहा है। कहीं से भी इसके रुकने या किसी तरह की छूट की सूचना नहीं है।
ऐसी स्थिति में सड़कों पर झाड़ू लगाने वाले, नालों की सफाई करने वाले, पार्कों की देख रेख करने वाले, समय पर नाले की निकासी के लिए मोटरों को ऑपरेट करने वाले मैकेनिकल, मलेरिया व मेंटेनेंस विभाग से जुड़े एमसीडी के निचले स्तर के कर्मचारियों का आर्थिक संकट के नाम पर शोषण कहां तक जायज है? मेहनत से कमाए पैसे पाने के लिए सड़कों पर विरोध प्रदर्शन के लिए इन्हें बाध्य करना कहां तक उचित हैं?
इन सारे सवालों का जवाब वक्त रहते एमसीडी के शीर्ष नेतृत्व को तलाशना होगा। सियासी नफा नुकसान की बात एक तरफ, बात तो ये माननी ही पड़ेगी कि काम का कोई विकल्प नहीं, विशेषकर तब जब दिल्ली की जागरूक जनता ने देश की सियासत में एक नया अध्याय जोड़कर सबको चकित कर दिया है।