यहीं तक मैं हूं..इसके आगे सरकार..

delhi hospital

हाथ बांधे खुद में सिमटा रहा..राजनीति से दूर..व्यवस्था को नजरअंदाज करता रहा। अपनी जरूरतों को अपनी जिम्मेदारी समझ बस बढ़ता रहा। मेहनत करता रहा..पहले बस पढ़ता रहा..सरकार ने जो सिलेबस तैयार कर दिया था, बस उसे पूरा करता रहा..पहले परिवार को अपने लिए मेहनत करते देखता रहा..फिर दौर ऐसा भी आया कि खुद को परिवार के लिए तपते..पकते..थकते देखता रहा..देश बदल रहा था..सियासत बदल रही थी..सियासत में आने वाले सिलेबस बदल रहे थे…सवाल तो आ रहे थे मन में लेकिन आदतन उन्हें नकारते..नजरअंदाज करते बस बढ़ता रहा।

बदलाव वाले वादे..विकास वाले वादे..सुनता रहा। सोचता..समझ भी जाता लेकिन ना सोचने वाली आदत के साथ सरकता रहा। बेहतरी के लिए सियासत करने वाले चेहरे बदल रहे थे..नए वाले चेहरे आ रहे थे..लेकिन मैं सब नजरअंदाज करता रहा। सियासत को अपनी चीज नहीं समझता रहा…दूर रहा..समय निकलता रहा..समय के साथ जिम्मेदारियां बढ़ती गयी..मैं उनसे ही उलझता रहा..देश से अलग बस अपनी कहानी में ही उलझा रहा..हां अपने हौसलों पर..बुलंद इरादों पर बड़ा भरोसा रहा..सब खुद संभाला…आगे भी संभल ही जाएगा बस यही सोचता रहा…

हद तो तब तब कर दी, देश की कहानी का किरदार तय करने का जब-जब पांच सालों के बाद मौका आया। समय इतना भी नहीं निकाल पाया कि कौन सही, कौन गलत कुछ सोच सकूं। कभी जात..कभी जमात..तो कभी धर्म..कभी बस पल भर को उफने जज्बात को आधार बनाता रहा..अपनी समझ को छोड़..दूसरों की समझ से देश रचने वालों में उन नामों को जोड़ता रहा..जो परंपरा बदलते गए..खुद को बड़ा किया..बस परिवार और अपनों का भला किया। राजनीति में भी बहुत कुछ नया रचते गए। अपने ढ़ंग की अपनी कहानी..जिसमें देश नहीं था..देश की जनता नहीं थी। कुछ ऐसा था जो समझ से परे था..कुछ आसमानी..कुछ समझ न आ सके, कुछ वैसा वाला क्रांतिकारी। सामान्य सोच उलझती रही…हां इन सब के बीच देश का भला, सबका विकास..सबका भला..सबसे हिट चुनावी नारा बना ही रहा…

अब यहां हाथ बांधे फिर बैठा हूं..देर काफी हो गई है..समझ तो आ रहा है कि हमारी उस सियासत तो दूर रहने की सोच..सियासत से दूरी बनाने की समझ ने सब बदल दिया..सियासत को देश से दूर कर दिया है। कुर्सियों को हमने उनके हवाले कर दिया..जो सिस्टम नहीं चला सके..बस सियासत चमका सके। अब सांस उखड़ने को है..हालात नहीं संभले तो जिंदगी बस जाने को है। सब सप्ताह भर पहले ही शुरू हुआ। शरीर की गर्मी क्या बढ़ी सब हवा कर दिया..वो लापरवाही..हर समय..हर किसी के साथ..सब कुछ नजरअंदाज करने वाली वो बात..सरकार पर नही, खुद पर भरोसा रखने वाली वही सोच..वही सिलेबस खत्म करने वाला जुनून। बाहर की बदहाली..व्यवस्था से दूर रहने वाली सोच..फिर हावी रही..घर को ही अस्पताल बना दिया..पता जो चला कि अस्पताल के हालात बुरे हैं। दुनिया को परास्त करने वाली बीमारी को परास्त करने का शुद्ध हिन्दुस्तानी जज्बा।

सब सही ही चल रहा था कि सांसों ने लड़खड़ाना शुरू कर दिया..तब पहली बार पता चला कि बस यही लिमिट है…अपने से अपनी कहानी बस यही तक लिखी जा सकती है..यही है आखिरी पैरा…इसके आगे व्यवस्था आती है..सरकार आती है। वही सरकार..वही सरकारी सिस्टम जिसे कभी अपनी जिंदगी से जुड़ने ही नहीं दिया। दूर अस्पृश्य सा कुछ समझता रहा..अपने दम पर जिससे दूर भागता रहा। जीवन के बाकी बचे कुछ दम का पूरा दारोमदार अब उसी सरकार पर है..अस्पताल में बस एक बेड मिल जाए..अभी तो सिलेंडर जुगाड़ लिया..अंदर ऑक्सीजन आराम से मिल जाए..हालत बिगड़े तो आईसीयू बेड मिल जाए…जीवन के इन बेहद खास पलों का सिलेबस सरकार तैयार कर दे..सांसे बची तो देश की सियासत का सिलेबस बदलने के विषय में इस बार जरूर सोचूंगा..