सब सियासी हो जाने की सजा तो नहीं भुगत रहा देश?

दिल्ली रोई थी, देखा सबने, किसानों के वेश में आए उपद्रवियों ने शहर की आबरू तार तार कर दी, सब इसके गवाह बने। दिल्ली पुलिस के रूप में इसके रक्षक पीटे गए, उनके जख्म अभी ताजा हैं। हुआ भी ये सब तब, जब देश गणतंत्र दिवस मना रहा था। समझ नहीं पा रहे लोग कि ये दिन दिल्ली के लिए कुछ उसी तरह खास है जैसे किसी भी लड़की की शादी का दिन। समझना आसान नहीं, इसी पावन दिन देश ने गणतंत्र के साथ गठबंधन किया, लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ आगे चलने का संकल्प लिया। उस विशिष्ट पहचान ने सिंदूर सा दिल्ली को सजाया। दुल्हन सी मर्यादा ओढ़े बैठी दिल्ली को उस खास दिन ही पंजाब से आए कुछ उपद्रवियों ने रौंद दिया।

400 के करीब दिल्ली पुलिस के जवान जख्मी हुए, 30 पीसीआर और पुलिस वाहनों को क्षतिग्रस्त किया, 428 बैरीकेड्स तोड़े गए, 200 से ज्यादा रेलिंग को नुकसान पहुंचाया गया, 40 डीटीसी बसों में तोड़फोड़ की गई। दिल्ली के स्थानीय लोग जिस तरह की दहशत का शिकार हुए उसकी तो कहीं कोई चर्चा ही नहीं।

सबसे बड़ा गुनाह तो लाल किला पर किया गया। तिरंगे की जगह धर्म विशेष का झंडा फहराया गया। राष्ट्र के गौरव के साथ खुले रूप में खिलवाड़ किया गया।

अगर सच्ची राष्ट्रवादी चेतना के साथ इस सारे मसले को देखा जाए तो इस गुनाह के लिए जिम्मेदार लोगों को सख्त से सख्त सजा मिलनी ही चाहिए। लेकिन बाद के घटनाक्रम ने देश को घोर निराशा और क्षोभ से भर दिया है। देश हैरान है आखिर इस तरह के गुनाह के जिम्मेदार कैसे अभी तक कैद से बाहर हैं? इसी तिरंगे को फहराने के लिए न जाने कितने लोगों ने शहादत दी। और आज उसके अपमान की कोई सजा नहीं।

क्या आजाद भारत में जन्में देश के नेता इस मूल भावना को समझ ही नहीं पा रहे?

बात बस गोल मोल सी। जिम्मेदार लोगों पर एफआईआर दर्ज कर ली गई है। उन्हें सरकार की तरफ से निवेदन कर दिया गया है कि वे आकर अपनी बात रखें। और दूसरी तरफ वे लोग जिन पर जिम्मेदारी तय की गई है, वे खुले में बैठ कर सरकार को ही इसके लिए जिम्मेदार ठहराने की खुली बात कह रहे हैं। जिन्होंने दिल्ली में आने की जबरन परमिशन ली, वो आज इसे ही सरकार का सियासी दांव बता रहे हैं।

जमकर सियासी चाल चले जा रहे हैं। आम भारतवासी भरमा सा गया है। उल्टी-सीधी दलीलें माहौल बिगाड़ रही हैं। देश के सम्मान की तो कोई चर्चा ही नहीं। दिल्ली के आंसुओं का तो कोई मोल ही नहीं। देश की मर्यादा से खिलवाड़ करने वाले को कभी किसान, तो कभी सच्चे सरदार के छद्म आवरण से ढका जा रहा है।

कमाल देखिए, सबसे बड़े जिम्मेदारों में से एक राकेश टिकैत रो रो कर खुद को बेगुनाह बता रहे हैं, तो वहीं योगेन्द्र यादव इस सारे मसले में सरकार की साजिश तलाश रहे हैं। तो कल तक इन्हीं के बीच बैठा दीप सिद्दू इन्हीं तथाकथित किसान नेताओं को परतें खोलने की खुली धमकी दे रहा हैं।

सवाल कोई नहीं पूछ रहा कि जिस आंदोलन में लजीज खाने और ऐशों आराम की कोई कमी नहीं थी, वहां अचानक पीने की पानी की दिक्कत कैसे हो गई? किन के पैसों पर चल रही थी सारी व्यवस्था? क्यों न माना जाए कि उनका काम हो गया और वे चले गए? सिख आतंकी संगठन इतनी खुशियां क्यों मना रहा है? पूरी दुनिया में उत्पात मचा कर देश की छवि क्यों बिगाड़ रहा है? अगर ऐसी कोई संदिग्ध बात साबित होती है, तो क्यों न उनके साथ बैठे सारे के सारे लोगों पर कानूनी कार्रवाई की जाए?  

लाल किले पर झंडा फहराने वाले जुगराज की तो कहीं कोई चर्चा ही नहीं। पंजाब के तरनतारन के रहने वाले इस देशद्रोही को दिल्ली मे खड़ा किए गए सियासी तूफान का सीधा लाभ मिल रहा है। देश की सबसे शक्तिशाली दिल्ली पुलिस, अभी पंजाब पुलिस से मदद की याचना कर रही है।   

सीधी सी बात है बहस कृषि कानूनों पर होती रही है, होती रहेगी। लेकिन जिन्होंने भी दिल्ली को बदनाम किया है, इसकी मर्यादा को तार तार किया, सभी गुनाहगार पहले जेल की सलाखों को पीछे रखे जाएं, वो तस्वीर देश के सामने आनी ही चाहिए, फिर आगे कोई, किसी से भी, कैसे भी बात करे।

अगर ऐसा नहीं होता है तो देश तैयार रहे, इससे भी गंदे और गहरे जख्म वाले दाग के लिए। डरा क्यों न जाए, जब चिंदी सा सिख आतंकी संगठन अगर इतना बड़ा कांड कर सकता है, जिसके पर्याप्त संकेत मिल रहे हैं, तो देश के दुश्मनों की लिस्ट में तो बहुत बड़े-बड़े नाम हैं।