जवाब तो हम सब को देना होगा!

गणतंत्र दिवस के दिन की सबसे गंदी तस्वीर। लाल किले की प्राचीर पर झंडा लगाने के लिए चढ़े शख्स को जैसे ही कोई नीचे से तिरंगा पकड़ाता है, वो उसे बहुत ही अपमानजनक तरीके से फेंक देता है। भला इस तस्वीर को देख कर कोई भारतीय कैसे नहीं आक्रोशित होगा। तमाम तरह की दलीलें..दिमाग भन्ना सा गया है। तय मानिए ये तस्वीर आजाद भारत की कुछ बेहद कलंकित करने वाली तस्वीरों में शामिल हो गई हैं। जवाब देना मुश्किल हो जाएगा, आज जो भी इसके गवाह बने हैं। क्या कर रही थी दिल्ली पुलिस, क्या कर रहा था केंद्र सरकार का इतना बड़ा तामझाम? कौन थे देश के गृहमंत्री तब, किसकी जिम्मेदारी बनती थी? 26 जनवरी को तो दिल्ली में हाई एलर्ट रहता है। फिर इन उपद्रवियों को दिल्ली में आने क्यों दिया गया? ये तो कई दिनों से ताल ठोक रहे थे। सोशल मीडिया पर ढ़ेरों प्रमाण होंगे तब सवाल पूछने वालों के पास। लाल किले तो अधिकतम सुरक्षा घेरे में आता है। फिर कैसे इतनी आसानी से इतने सारे लोग पहुंच गए वहां? और तो और कैसे इतनी हिम्मत दिखा गए कि तिरंगे की जगह धर्म विशेष का झंडा लगा गए? अगर ये झंडा केसरिया या हरा होता तो देश की धरती फिर लाल न होती क्या? फिर किसी को भी किसी भी वजह से ऐसा करने के लिए कौन उकसा गया..?  

दिल्ली पुलिस की पिटाई करते उपद्रवी

जनपथ पर देश शक्ति प्रदर्शन कर रहा था। दो दिन पहले से ही राफेल की चर्चा जोरों पर होती रही। भारत की ताकत न जाने कितने गुना बढ़ जाने की बात बताई जाती रही। ऐसी ताकत किस काम की जिससे बाहर के दुश्मनों की तो छोड़िए अंदर का एक आतंकी तक नहीं डर रहा, फिर ताकत की ये नुमाइश कैसी?

लगातार खबरें आती रहीं कि आंदोलन पर खालिस्तानी एजेंडे का साया है। जो भी गया सबने बताया कि वहां सब खुले आम दिखता रहा। फिर भी सरकार सोती रही। शायद यही वजह रही कि मीडिया को दूर रखने की पुरजोर कोशिश होती रही, ताकि ये सब देश न जान जाए। मीडिया के जिन लोगों को अंदर आने दिया गया, उन्होंने भी अपने यूट्यूब की रैंकिंग को ही प्राथमिकता दी।

सवाल तो कांग्रेस और आम आदमी पार्टी से भी पूछे जाएंगे। विपक्षी पार्टी के लोग वहां जाते रहे, फिर भी कुछ भी नहीं बोला। सरकार को कम से कम इस मसले पर क्यों नहीं घेरा? सियासी लाभ के लिए देश की सुरक्षा से क्यों समझौता किया? जब वहां जाकर पीटे कांग्रेस के पंजाब के ही सांसद, तब बोल पड़े खालिस्तानियों के नियंत्रण की बात। सब चलता रहा, एक दो दिन नहीं पूरे दो महीने। क्या कर रही थी देश की खुफिया एजेंसियां, क्यों नहीं एक्शन लिया? समय रहते क्यों नहीं संभले। लाल किला पर जो हुआ उसे फिर खालिस्तान का एजेंडा चलाने वालों की जीत क्यों न कही जाए?

जब देश के सारे किसानों की अगुवाई का दम भरने वाले तथाकथित नेता बार बार किसान के हित पर बात आगे नही बढ़ा रहे थे। जिनकी मंशा केवल और केवल सरकार का सिर झुकाने की साफतौर पर दिखने लगी थी। तब भी कृषि मंत्री बार बार बैठकों का ही आयोजन करने में बिजी रहे। क्यों न उनकी ही समझ पर सवाल उठाया जाए? आप तो कहते रहे कि किसान हित की मंशा से ही सरकार ये कानून लेकर आई है। कॉरपोरेट के हित की बात ही नहीं है। फिर सरकार की इच्छा शक्ति साबित करने में संवाद और शो-ऑफ में माहिर विश्व की सबसे बड़ी सियासी पार्टी कैसे विफल रही?

छोटे से किसी कार्यक्रम में कुछ मामला बिगड़ जाए, पुलिस तुरंत आयोजकों को गिरफ्तार करती है। फिर देश की राजधानी में, देश की मर्यादा तार तार हो गई, दिल्ली की सड़कों पर गणतंत्र के पावन मौके पर दिनभर हुड़दंग चलता रहा और कैसे इसके आयोजक और समर्थक खुले घूम घूम कर उल्टे सीधे बयान देते रहे। सरकार को ही इसके लिए जिम्मेदार बताते रहे, और तो और गृहमंत्री के इस्तीफे की मांग भी करते रहे? अगर ऐसे लोगों के ही समर्थन में देश दिख रहा तो फिर गृहमंत्री को इस्तीफा दे देना चाहिए था?