सिस्टम की हार है समिति का गठन

9 करोड़ में से 9 किसानों ने भी पैसे वापस नहीं किए

दिल्ली की सीमा पर बैठे किसानों और सरकार के बीच जारी गतिरोध को खत्म करने की दिशा में बड़ी पहल करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने नए कृषि कानूनों पर फिलहाल रोक लगा दी है और एक समिति के गठन की बात कही है, जिसकी रिपोर्ट के आधार पर कानूनों पर आगे विचार किया जाएगा।

मौजूदा हालात में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय सराहनीय है। जिस तरह से सरकार और आंदोलन कर रहे किसानों के बीच किसी भी तरह से समझौते के आसार नहीं दिख रहे, ऐसी स्थिति में गुंजाइश भी बस इसी बात की रह जाती है। कोई तीसरा शक्तिशाली पक्ष आए दोनों को रोके, पहले खुद समझे, फिर देश को समझाते हुए फैसला तैयार करे।

देश का आम नागरिक इन कृषि कानूनों को लेकर पूरी तरह से भ्रम की स्थिति में है। कानून बनाना, देश को सही दिशा में लेकर जाना, इसकी पूरी जिम्मेदारी राजनेताओं की है। जिनको ये अधिकार जनता अपने वोट के जरिए देती है। मतलब माना तो यही जाता है कि सत्ता में बैठी सरकार देश को जिस दिशा में लेकर जाना चाह रही है, उसे ऐसा करने के लिए जनता ने अनुमति दे रखी है। इसी बीच में भूमिका आती है सत्ता के दूसरी तरफ बैठे राजनेताओं, यानी विपक्ष की, जो सरकार के निर्णयों को तर्क और जनहित की कसौटी पर कसता चलता है। लोकतंत्र में इस तरह की एक पूरी व्यवस्था बनी हुई है, पूरा का पूरा सिस्टम बना हुआ है।

कहना गलत न होगा कि समिति का गठन इस स्थापित सिस्टम की हार की तरफ इशारा करती है। विचार तो सबको करना ही होगा कि कमी कहां रह गई? कहां कौन सी कड़ी कमजोर है?

 सबसे पहले बात सत्ता पक्ष की। बात तो सही है पंजाब और हरियाणा के किसानों को छोड़ दिया जाए तो देश के ज्यादातर किसानों की हालत अच्छी नहीं है। खेती किसानी से जुड़ी तमाम तरह की समस्याएं हैं। किसानों की आत्महत्या की खबरें विचलित करती रही हैं। उनकी आय बढ़े इस संबंध में सरकार की चिंता जायज है। लेकिन कृषि कानूनों को लागू करने में जल्दबाजी जिस तरह से सरकार की तरफ से देखने को मिली, संशय सबसे पहले वही सामने आए। कोरोना काल में आनन फानन में इस बिल को पास करवाने का निर्णय ही सरकार की गले की फांस बनता दिखता है। कृषि कानूनों में इस तरह के बदलावों की बात बेशक विपक्ष के लोग अपने सत्ता काल में करते रहे हों, लेकिन अगर मौजूदा सरकार ने इसे पास करने का मन बनाया भी तो इस दिशा में देश के सभी बड़े किसान संगठनों से चर्चा के बाद ही बढ़ना चाहिए था, विशेषकर पंजाब और हरियाणा के समृद्ध किसानों के इनपुट जरूर लिए जाने चाहिए थे। जाहिर सी बात है देश की बड़ी आबादी कृषि पर निर्भर है, अब पहले वाली बात भी नहीं रह गई जब ज्यादातर राजनेताओं को कृषि की समझ हुआ करती थी। पक्ष और विपक्ष दोनों ही तरफ ऐसे नेताओं का अभाव दिखता है, विशेषकर शीर्ष स्तर पर। ऐसे में किसी भी निर्णायक कृषि कानून के संदर्भ में किसानों से स्पष्ट विचार-विमर्श किया जाना ही चाहिए।

अब बात विपक्षी खेमे की करते हैं। संसद में शोर बस आखिरी दिन ही ज्यादा मचा। नए कृषि कानून बन गए। जिन राज्यों में बीजेपी की सरकार नहीं है वहां इन कानूनों को निरस्त करने की कवायद शुरू हुई। पंजाब की कांग्रेस सरकार ने अग्रणी भूमिका निभाते हुए नए कानूनों पर रोक की घोषणा कर दी। बकायदा एमएसपी पर भी कानून बना दिए। एमएसपी से कम की खरीद पर जेल और जुर्माने का प्रावधान कर दिया। लेकिन क्या ये सारी कवायद जनता को गुमराह करने की रही? या फिर पंजाब के मौजूदा सियासी नेतृत्व की समझ से परे है ये पूरी कृषि समस्या। अगर ऐसा नहीं है, तो कृषि कानूनों के विरोध में पंजाब के किसान ही इतने बेचैन क्यों दिख रहे?

ऐसी ही नासमझी दिल्ली की आम आदमी पार्टी की तरफ से भी देखने को मिली। दिल्ली सरकार पहले बकायदा इसकी आवश्यकता दिखाते हुए कृषि कानून को पास करती है। वो भी तब पंजाब से चलकर किसान दिल्ली की सीमाओं को घेरे बैठे हैं। आंदोलन जारी है। फिर हफ्ते दस दिन के अंदर ही विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर कानून की कॉपी फाड़ने का लाइव कार्यक्रम चलाते हैं।

और तो और, सबसे अधिक मुखरता और आक्रामकता के साथ कृषि कानूनों का आज विरोध कर रहे सबसे बड़े किसान नेता, राकेश टिकैत के पुराने बयान मीडिया में देखे जा सकते हैं, जिनमें वो इन्हीं कानूनों की तारीफ करते दिख रहे हैं।

एक और पक्ष है, केंद्र सरकार ने इन सब के बीच देश के लगभग 9 करोड़ किसानों के खाते में पैसे डाले। 90 तो छोड़िए 9 किसानों ने भी उन पैसों को वापस कर सरकार के प्रति विरोध नहीं जताया। विशेषकर जब स्थिति आर पार की बनी है।

मतलब तो यही निकलता है कि नए कृषि कानून इन्हें समझ नहीं आ रहा, या किसी और कारणवश ये समझना नहीं चाह रहे। मुश्किल तो है, जब इतने पढ़े लिखे, इतना प्रशासनिक अनुभव रखने वाले राजनेता, राष्ट्रीय स्तर पर किसानों के नेतृत्व का दम भरने वाले किसान नेता जब इन कानूनों को लेकर स्पष्टता नहीं दिखा पा रहे तो देश का आम आदमी कैसे समझेगा?

बेकार लगने लगती हैं, दिल्ली को बंधक बनाकर, महामारी को नजरअंदाज करते आंदोलनरत किसानों की भावनात्मक अपील, बेकार लगने लगती हैं विपक्ष की दलीलें, इतने भव्य जनादेश के बावजूद जब किसानों का एक खेमा भी अपने पक्ष में मुखरता से खड़ा न कर पाए तो बेमानी लगने लगती हैं सत्ता पक्ष की दलीलें।

सिस्टम को हारता देख निराशा तो होती है, फिर उम्मीद सुप्रीम से ही बंधती है। सही कहा सुप्रीम कोर्ट ने, हम नहीं सुनना चाहते कि आंदोलन कर रहे किसान समिति के समक्ष पेश नहीं होना चाहते। कोई जानकार आदमी (समिति के सदस्य) किसानों से मिले, प्वाइंट के हिसाब से बहस करे कि दिक्कत कहां है?