बदलते लोकतंत्र का बिगड़ता चेहरा

तो क्या मान लिया जाए कि अब देश में न्याय मिलने के लिए सत्ता के बदलने का इंतजार करना होगा। जब तक सत्ता से सांठ-गांठ रहेगी पुलिस दुम हिलाती रहेगी। सत्ता परिवर्तन हुआ नहीं..मालिक का मिजाज बिगड़ा नहीं कि पुलिस झपट्टा मार कर दबोच लेगी। देखेगी भी नहीं कि कानून की किताबों मे लिखा क्या है। उसे इससे मतलब भी क्यों हो..उसका बोझ उठाने के लिए आम आदमी तो है ही। वही आम आदमी जिसके वोट के दम पर सत्ता में इतराते हैं नेता। झट आम से खास बन जाते हैं..कानून को पैरों तले कुचलते हैं। दबा डालते है हर उस आवाज को जो उनकी सत्ता को चुनौती देती है। और इन सब के बीच आम आदमी बस रिमोट थामे मौन देखता रह जाता है।

समझ नहीं पा रहा है देश का आम नागरिक कि कौन सही है कौन गलत? इतना शोर..इतना कोलाहल..किसे सही माने..किसे गलत? सुशांत की न्याय की लड़ाई के नाम पर हर मर्यादा लांघने वाला अब सही है कि या फिर अन्वय नायक, जिसकी आत्महत्या का मामला अब सत्ता के साथी बदलने के बाद उछला है, उसकी मौत के जिम्मेदारों की गिरफ्तारी नहीं होना तब सही था? उस मामले को दबाने वाली तब की भाजपा-शिवसेना गठबंधन की सरकार गलत थी या फिर जो आज कांग्रेस-शिवसेना गठबंधन की सरकार अपने फायदे के लिए इसका इस्तेमाल कर रही है वो गलत है?

और तो और ये सारी की सारी घटनाएं जब घटित हुईं..खुलेआम अमर्यादित अंदाज में घटित हो रही हैं तो..केंद्र की ताकतवर सरकार बस निंदा..आलोचना का चलन चला कर अकर्मण्य सी बैठ जाती है..अब यह सही है..या जब केंद्रीय एमआईबी मंत्रालय के जीवित होने के बावजूद टीवी स्क्रीन पर गंध फैल रहा है और मंत्रालय सोया है..यह गलत है?

इतनी समझदार तो जनता है ही..उसे पता है कि टीवी स्क्रीन से निकली यह गंदगी ही है जो समय समय पर महाराष्ट्र की सड़कों पर बिखरी दिख जाती है।

स्पष्ट है कि मुंबई में जो हो रहा है गलत है। किसी से छिपा नहीं कि यह लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पर प्रहार है..उल्टे सीधे जैसे भी सही। जाहिर है कोई पत्रकार कानून से उपर नहीं। होना भी नहीं चाहिए..कोई भी गलत करता है तो कार्रवाई होनी ही चाहिए..लेकिन तब शिवसेना को क्या हो गया था…तब क्या मजबूरी थी। सरकार में तो वे तब भी थे। फिर क्यों नहीं किसी कोने से आवाज उठी..कांगेस और एनसीपी तब कहां सो रहे थे?

साफ दिख रहा है कि देश में लोकतंत्र नया आकार ले रहा है। मर्यादा किसी की नहीं। सीएम को छोड़िए..पीएम तक रावण बना कर जलाए जा रहे हैं। छोटा हो या बड़ा पत्रकार..कहीं भी कुत्ते की तरह पीटा जा सकता है। सच्चाई यह भी सामने में आने लगी है कि जनता की कोई नहीं सुन रहा..बस सब सुनाए जा रहे हैं..अपने अपने तर्कों..कुतर्कों से जनता को भरमाए जा रहे हैं। मजे अधिकारियों के हैं। छोटे वाले की पूछ नहीं। अधिकारी बड़ा होना चाहिए। बड़े ओहदे पर बैठा..पुलिस कमिश्नर के लेवल का..बस वफादार कुत्ते के माफिक बने रहना है..रिटायरमेंट के बाद तो बल्ले बल्ले है ही।