परंपराओं को विकृत तो नही कर रहें हम?

ओम प्रकाश त्रेहन

एक राजा का जन्मदिन था। सुबह जब वह घूमने निकला, तो उसने तय किया कि वह रास्ते में मिलने वाले पहले व्यक्ति को पूरी तरह खुश व संतुष्ट करेगा। उसे एक भिखारी मिला। भिखारी ने राजा सें भीख मांगी, तो राजा ने भिखारी की तरफ एक तांबे का सिक्का उछाल दिया। सिक्का भिखारी के हाथ सें छूट कर नाली में जा गिरा। भिखारी नाली में हाथ डाल तांबे का सिक्का ढूंढ़ने लगा। राजा ने उसे बुला कर दूसरा तांबे का सिक्का दिया। भिखारी ने खुश होकर वह सिक्का अपनी जेब में रख लिया और वापस जाकर नाली में गिरा सिक्का ढूंढ़ने लगा। राजा को लगा की भिखारी बहुत गरीब है, उसने भिखारी को फिर बुलाया और चांदी का एक सिक्का दिया भिखारी राजा की जय जयकार करता चांदी का सिक्का रख लिया और फिर नाली में तांबे बाला सिक्का ढूंढ़ने लगा। राजा ने फिर बुलाया और अब भिखारी को एक सोने का सिक्का दिया। भिखारी खुशी सें झूम उठा और वापस भाग कर अपना हाथ नाली की तरफ बढ़ाने लगा।

राजा को बहुत खराब लगा। उसे खुद सें तय की गयी बात याद आ गयी कि पहले मिलने वाले व्यक्ति को आज खुश एवं संतुष्ट करना है। उसने भिखारी को बुलाया और कहा कि मैं तुम्हें अपना आधा राज-पाट देता हुं, अब तो खुश व संतुष्ट हो जाओ। भिखारी बोला, मैं खुश और संतुष्ट तभी हो सकूंगा जब नाली में गिरा तांबे का सिक्का भी मुझे मिल जायेगा। हमारा हाल भी उस भिखारी जैसा ही है। हमें मानव जीवन रूपी अनमोल खजाना मिला है, देव-शास्त्र-गुरु तुल्य अनमोल रत्न मिले हैं, रत्नों से भरे धर्म ग्रन्थ मिले हैं और हम उसे भूलकर नाली में तांबे के सिक्के निकालने के लिए जीवन गंवाते जा रहे है।

आज मन्नत हमारे जीवन में आदत या कहें कि लत की तरह शामिल हो गई है। कह सकते हैं कि इससे हमारी आस्था विकृत होती जा रही है। जिसने हमे हमारी बेशकीमती परंपराओं से दूर कर दिया है। किसी के प्रति सम्मान अलग बात है, लेकिन परंपराओं की मूल भावना से खिलवाड़ को जायज नही ठहराया जा सकता। कहानी के पात्र की तरह या तो हमें उन धरोहरों की महता का भान नही है या फिर देने वाले का सम्मान नही है। इसी का नतीजा है कि आज हमने अपने बीच कई ऐसे कई बाबा जी या माता जी को जगह दे दी है जिनका हमारी मूल परंपराओं व आस्थाओं से कोई सीधा सरोकार नही है। हैरानी तब ज्यादा होती है जब हम अपने सामने साफतौर पर उनके पीछे चल रहे पैसे के खेल को देख रहे होते हैं। जानकारी के लिए गीता के अध्याय 16, श्लोक 23 और अध्याय 17 श्लोक 4,5,6 साफतौर पर शास्त्र सम्मत देवों की अराधना की बात करता है। गुरु के चयन का आधार भी शास्त्र सम्मत विचारधारा के अनुकूल होना चाहिए। शव पूजा का तो कोई प्रावधान ही नहीं। हमें इतना जरूर सोचना चाहिए कि कही जाने अनजाने में हम कहीं आने वाली पीढ़ियों को अपनी परंपराओं का विकृत रुप तो नही देने जा रहे।

पिछले कुछ सालों से जिस तरह से शिरडी वाले साईं बाबा की पूजा आराधना का चलन हिन्दुओं में बढ़ता जा रहा है उसे रोका नहीं जा सकता है। लेकिन इतना तो उन्हें बताया ही जा सकता है कि इसे पूरी तरह हिन्दू विधि विधान में ढ़ालना, हिन्दू धर्म का हिस्सा बनाने की कवायद गलत है।

(ये लेखक ओम प्रकाश त्रेहन के अपने विचार हैं)